Book Title: Rogimrutyuvigyanam
Author(s): Mathuraprasad Dikshit
Publisher: Mathuraprasad Dikshit

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Page 19
________________ १० रोगिमृत्युविज्ञाने एवम् उपचारों से स्त्री और पुरुष की मुख-चरणगत उच्छनता मसृणता दो बार शान्त हो जाती है, परंतु तृतीयावृत्ति यदि उच्छनतादि उत्पन्न हो जाय तो निश्चित अरिष्ट है, एक मास में वह रोगी मर जाता है, वृद्धावस्था में प्रथमावृत्ति की मसृणता उच्छनता से रोगी के छ मास जीवन की परमावधि समझे, कभी कभी पाँच चार महीनों में भी वह रोगी मर जाता है ॥ २२ ॥ यक्ष्मसंग्रहणीप्लीहा - पाण्डुमेहाघरोचके । दीर्धकालातिपातेनोच्छूनत्वं तत्र जायते ॥ २३ ॥ यह उच्छ्नतादि यक्ष्मा, संग्रहणी, प्लीहा, पाण्डु, प्रमेह, अरोचकादि रोगों के दीर्घकाल तक ठहरने से स्वतः उत्पन्न हो जाती है ।। प्रथमावृत्तिमायातं षड्भिर्मासैहिनस्ति तम्।। तृतीयावृत्तिमायातं पक्षमात्रेण हन्ति तम् ॥२४॥ यह प्रथमावृत्ति में उत्पन्न छ मास में एवं तृतीयावृत्ति में उत्पन्न पक्ष मात्र में रोगी को मार देती है, यह तत्समय मात्र जीवन का सूचक अरिष्ट है ॥ २४ ॥ वर्णभेदं मसृणतां दृष्ट्वोच्छूनत्वमेव च । शमनातिथितां यातं तं त्यजेदातुरं भिषक् ॥२५॥ वर्णभेद-फटी सी आवाज अर्थात् स्वर में वैषम्य, मुखादि में उच्छनता और मसृणता देख कर निश्चित मरणासन्न उस रोगी को जानकर उत्तम वैद्य उसे छोड़ दे ।। २५ ।। किच्चिच श्वासे समुत्पन्ने तदिनावधि जीवनम् । दीर्धे श्वासेऽथवा छिन्ने होरामानं स जीवति ॥ २६ ॥ पूर्वोक्त प्रकार के रोगी के कुछ श्वास उत्पन्न हो जाने पर वह रोगी उस दिन मात्र जीवित रहता है और यदि दीर्घ श्वास अथवा छिन्न श्वास उत्पन्न हो जाय तो वह दो ढाई घंटे मात्र जीवित रहता है।॥ २६ ॥

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