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श्रुतेन सम्यग्ज्ञातस्य व्यवहारप्रसिद्धये । स्थाप्यस्य कृतनाम्नोंतःस्फुरतो न्यासगोचरे ॥ ८४॥ साकारे वा निराकारे विधिना यो विधीयते।न्यासस्तदिदमित्युत्क्वा प्रतिष्ठा स्थापना च सा८५||२||
इति प्रतिष्ठालक्षणम् ।। स्थाप्यं धर्मानुबंधांग गुणी गौणगुणोथवा । गुणो गौणगुणी तत्र जिनाद्यन्यतमो गुणी ॥८६॥ गुणो निःस्वेदतादिः स्याद्वाह्यो ज्ञानादिरांतरः। सोऽहतां पंचकल्याणद्वारेणादौ प्रपंच्यते।।८७॥ गर्भावतारजन्माभिषेकनिष्क्रमणोत्सवान् । वृत्तान् ज्ञानाशिवोद्धर्षों भाव्यौ विंबेईतोर्पयेत्।।८८॥ कल्याणे प्रथमे झैदी रत्नवृष्टिस्तथोपदा । मातुःश्यादिकृतार्गभशोधनादिरुपासना ॥ ८९ ॥ |जिसकी स्थापना करना हो उसका स्वरूप शास्त्रसे अच्छीतरह जानकर व्यवहारमें प्रसि. |द्धिकेलिये पाषाण आदिमें उसके गुणोंके स्मरण करनेको नाम रखना । चाहे वह उसी । तरहके आकारवाली मूर्ति हो।या निराकार हो उसे ही प्रतिष्ठा अथवा स्थापना कहते हैं॥४॥ ॥ ८५ ॥ जिसकी स्थापना की जावे वह गुणी धर्मका कारण हो । उसमें भी अर्हतके गुण बाह्य निःस्वेदता (पसेव रहितपना) आदि हों तथा अंतरंग ज्ञानादि हों । इसी तरह जिसकी मूर्ति हो उसमें उसीके गुणोंकी स्थापना करनी चाहिये । यहांपर सबसे पहले तीर्थकर प्रभुकी हैं। पंचकल्याणकोंके द्वारा प्रतिष्ठाविधि वर्णन करते हैं।८६८७॥ गर्भावतरण, जन्माभिषेक, तपकल्याणक ज्ञानकल्याणक,और मोक्षकल्याणक-ये पंचकल्याणक अर्हतकी प्रतिमामें स्थापनकरे। अर्थात् अप्रतिष्ठित अर्हत प्रतिमाके पांचों कल्याणउत्सव विधिपूर्वक करे॥ ८८॥ पहले गर्भा
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