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हस्थापयेदर्हतां छत्रत्रयाशोकप्रकीर्णकम् । पीठं भामंडलं भाषां पुष्पवृष्टिं च दुदुभिम् ।। ७६॥ स्थिरेतरार्चयोः पादपीठस्याधो यथायथम् । लांछनं दक्षिणे पार्श्वे यक्षं यक्षीं च वामके॥७७।। गौर्गजोश्वः कपिः कोकः कमलं स्वस्तिकः शशी । मकरः श्रीद्रुमो गंडो महिषः कोलसेधिकौ ॥७८ : वजं मृगोऽजष्टगरं कलशः कूर्य उत्पलम् । शंखो नागाधिपः सिंहो लांछनान्यहता क्रमात् ७९ : सितो चंद्रांकसुविधी श्यामलौ नेमिसुव्रतौ । पद्मप्रभसुपूज्यौ च रक्तौ मरकतप्रभो ।। ८० ॥ हके रत्न उसमें डाले ऊपर छत्र लगावे तव प्रतिमाको सिंहासनपर विराजमान करे। यह शविधि प्रतिष्ठाके निर्विघ्न समाप्तिकेलिये कही गई है । सो इसे शुभदिन और शुभ लग्नमें करे। An७४ ॥ ७५ ॥ इसप्रकार वेदीपर सिंहासनमें प्रतिमा विराजमान करनेकी विधि पूर्ण हुई। फिर अर्हत प्रतिमाको तीन छत्र दो चमर अशोक वृक्ष दुंदुभी बाजा सिंहासन भामंडल दिव्य | भाषा पुष्पवर्षा-इन आठ प्रातिहार्योसे शोभित करे॥७६॥ उसके वाद स्थिर और चल दोनों से प्रतिमाओंमें सिंहासनके नीचे जैसा शास्त्रमें कहा है वैसे ही सीधी वाजूमें भगवानके चिन्हको और वाई तरफ यक्ष और यक्षीको खडा करे ॥ ७७ ॥ अर्हतोंके शरीरके चिन्ह क्रमसे बैल १ हाथी २ घोडा ३ बंदर ४ चकवा ५ कमल ६ साथिया ७ चंद्रमा ८ मगर ९ श्रीवृक्ष १० गैंडा
११ भैसा १२ सूअर १३ सेही १४ वज्र १५ हरिण १६ बकरा १७ मच्छ १८कल श१९कछुआ १२० कमलकी पांखुरी २१ शंख २२ सर्प २३ सिंह २४-ये चौवीस हैं । इनमेंसे जिस
भगवानका जो चिन्ह है उसे सिंहासनके नीचे भागमें खुदाना चाहिये ॥ ७८ ॥ ७९ ॥ ऋष
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