Book Title: Prashamrati Author(s): Umaswati, Umaswami, Publisher: Ashapuran Parshwanath Jain Gyanbhandar View full book textPage 8
________________ प्रशमरति बालस्य यथा वचनं काहलमपि शोभते पितृसकाशे । तद्वत् सज्जनमध्ये प्रलपितमपि सिद्धिमुपयाति ॥११॥ अर्थ : स्पष्ट शब्दोच्चार करने में असमर्थ ऐसे नन्हे-मुन्हे (बच्चे) के तुतलाते वचन पिता को प्यारे लगते हैं, ठीक उसी तरह (बच्चे के तुतलाते वचन की भांति) असम्बद्ध वाक्यरचना भी सज्जनों के बीच प्रसिद्ध हो जाती है ॥ ११ ॥ ये तीर्थकृत्प्रणीता भावास्तदनन्तरैश्च परिकथिताः । तेषां बहुशो ऽप्यनुकीर्तनं भवति पुष्टिकरमेव ॥ १२॥ अर्थ : तीर्थंकरों के द्वारा प्रणीत जो जीव वगैरह भाव (पदार्थ) एवं उनके बाद गणधरों के द्वारा एवं गणधर - शिष्यों के द्वारा प्ररूपित जो भाव, उन भावों का पुनः पुनः अनुकीर्तन करने से, ज्ञान- दर्शन एवं चारित्र की पुष्टि ही होती है [क्योंकि इससे कर्मनिर्जरा और उसके द्वारा मोक्ष की प्राप्ति होती है ॥ १२ ॥ ] यद्वदुपयुक्तपूर्वमपि भैषजं सेव्यतेऽर्त्तिनाशाय । तद्वद्रागातिहरं बहुशो ऽप्यनुयोज्यमर्थपदम् ॥१३॥ अर्थ : व्याधिकृत वेदना के उपशमन हेतु विश्वसनीय औषध का सेवन प्रतिदिन किया जाता है, उसी प्रकार रागद्वेष से बन्धे हुए कर्मों के द्वारा होती हुई तीव्र-मध्यममन्द वेदना के अपाहार हेतु (शान्ति हेतु ) अर्थ प्रधान वाक्यPage Navigation
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