Book Title: Prashamrati Author(s): Umaswati, Umaswami, Publisher: Ashapuran Parshwanath Jain Gyanbhandar View full book textPage 6
________________ प्रशमरति ग्रन्थरचनाएँ की हैं ॥५॥ ताभ्यो विसृताः श्रुतवाक्पुलाकिकाः प्रवचनाश्रिताः काश्चित् । पारम्पर्यादुच्छेषिकाः कृपणकेन संहृत्य ॥६॥ तद्भक्तिबलार्पितयामयाऽप्यविमलाल्पतयास्वमतिशक्त्या। प्रशमेष्टतयाऽनुसृताः विरागमार्गकपदिकेयम् ॥७॥ अर्थ : पूर्वोक्त शास्त्ररचनाओं में से निकले हुए जिनवचनानुसारी कुछ आगमवचनरूप धान्य के तुच्छ दानों को, जो कि गुरुपरम्परा से बचे हैं, अल्प ही हैं, फिर भी उन्हें इकट्ठे करके रंक सा मैं जो महापुरुष जिनवचनरूप तुच्छ अनाज के दानों को रख गये, उनके प्रति प्रीति की समर्थता से, अथवा तो रहे हुए आगमवचनरूप तुच्छ दानों के प्रति भक्ति के भाव से, मुझे मिली हुई अल्प या ज्यादा अस्वच्छ बुद्धि की शक्ति से मैंने उस वैराग्यमार्ग को ही एक जननी की नीक बनायी (प्रशमरति की रचना की) क्योंकि मुझे प्रशम अत्यन्त प्रिय है ॥६-७॥ यद्यप्यवगीतार्था न वा कठोरप्रकृष्टभावार्थाः। सद्भिस्तथापि मय्यनुकम्पैकरसैरनुग्राह्या ॥८॥ अर्थ : हालांकि, इस प्रशमरति में आदरणीय विषय नहीं है, विद्वद्जन योग्य गंभीर अर्थ भी नहीं है, प्रकृष्ट भावों से परिपूर्ण अर्थ भी नहीं है, तथापि अनुकम्पा ही जिनकाPage Navigation
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