Book Title: Prashamrati Author(s): Umaswati, Umaswami, Publisher: Ashapuran Parshwanath Jain Gyanbhandar View full book textPage 7
________________ प्रशमरति स्वभाव हैं, ऐसे सज्जनों को चाहिए कि अनुकम्पा के योग्य ऐसे मेरे प्रति दया रखते हुए मेरी इस ग्रन्थरचना को स्वीकार करें ॥८॥ कोऽत्र निमित्तं वक्ष्यति निसर्गमतिसुनिपुणोऽपि वा ह्यन्यत् । दोषमलिनेऽपि सन्तो यद् गुणसारग्रहणदक्षाः ॥९॥ अर्थ : स्वाभाविक बुद्धि से अतीव कुशल मनुष्य भी ['वाद्यन्यत्' पाठानुसार 'वादी' भी] यहाँ सज्जनों के सौजन्य के विषय में और कौन सा कारण प्रस्तुत करेगा ? अर्थात् सुनिपुण व्यक्ति भी स्वभाव के अलावा अन्य कोई कारण बतलाने में असमर्थ है। सज्जनों का यह स्वभाव ही है कि परगुणों का उत्कीर्तन करना एवं परदोष कहने में मौन रहना । दूसरों के दोषयुक्त वचन में भी सज्जन गुण ग्रहण करने में निपुण होते हैं ॥९॥ सद्भिः सुपरिगृहीतं यत् किञ्चिदपि प्रकाशतां याति । मलिनोऽपि यथा हरिणः प्रकाशते पूर्णचन्द्रस्थः ॥१०॥ __ अर्थ : सज्जनों के द्वारा आदरपूर्वक स्वीकृत थोड़ा बहुत भी (दोषयुक्त भी) इस संसार में प्रसिद्धि प्राप्त करता है [यह सज्जनों को स्वीकृत है, इस प्रकार विद्वत् समाज में प्रख्यात होता है] जिस प्रकार मलिन (श्याम) ऐसा हिरण भी पूर्ण चन्द्र में रहने से शोभित होता है ॥१०॥Page Navigation
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