Book Title: Prashamrati Author(s): Umaswati, Umaswami, Publisher: Ashapuran Parshwanath Jain Gyanbhandar View full book textPage 4
________________ प्रशमरति ३ प्रशमरति नाभेयाद्याः सिद्धार्थराजसूनुचरमाश्चरमदेहाः । पञ्चनवदश च दशविधधर्मविधिविदो जयन्ति जिनाः॥१॥ अर्थ : चरमशरीरी एवं दशप्रकार के यतिधर्म को जाननेवाले नाभिपुत्र (आदिनाथ) जिनमें प्रथम हैं, एवं सिद्धार्थ-पुत्र (वर्धमानस्वामी) अन्तिम हैं, ऐसे ५-९-१० = २४ (चौबीस) जिन [तीर्थंकर] जयशील बन रहे हैं ! ॥१॥ जिनसिद्धाचार्योपाध्यायान् प्रणिपत्य सर्वसाधूंश्च । प्रशमरतिस्थैर्यार्थं वक्ष्ये जिनशासनात् किञ्चित् ॥२॥ ___ अर्थ : जिन, सिद्ध, आचार्य, उपाध्याय एवं सर्व साधु भगवन्तों को नमस्कार करके प्रशम (वैराग्य) में प्रीतिभाव की निश्चलता के लिए (प्रशम की प्रीति में मुमुक्षु आत्मा कैसे स्थिर हो, इसलिए) जिनशासन में से कुछ कहूँगा ॥२॥Page Navigation
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