Book Title: Prakruti Parichaya Author(s): Vinod Jain, Anil Jain Publisher: Digambar Sahitya PrakashanPage 24
________________ आभिनिबोधिक ज्ञानावरणीय अहिमुह-णियमियअत्थावबोहो आभिणिबोहो । थूल वट्टमाण अणंतरिदअत्था अहिमुहा। चक्खिंदिएरूवं णियमिदं, सोदिदिएसद्दो, घाणिदिए गंधो, जिभिदिए रसो, फासिंदिए फासो, णोइंदिए दिट्ठसुदाणुभूदत्था णियमिदा । अहिमुह णियमिदढेसु जो बोधो सो आहिणिबोधो । अहिणिबोध एव आहिणिबोधियणाणं । एवं विधस्स णाणस्य जमावरणं तमाभिणिबोहियणाणावरणीयं। अभिमुख और नियमित अर्थ के अवबोध को अभिनिबोध कहते हैं। स्थूल, वर्तमान और अनंतरित अर्थात् व्यवधान रहित अर्थों को अभिमुख कहते हैं। चक्षुरिन्द्रिय में रूप नियमित है श्रोत्रेन्द्रिय में शब्द, घ्राणेन्द्रिय में गंध, जिव्हेन्द्रिय में रस, स्पर्शनेन्द्रिय में स्पर्श और नोइन्द्रिय अर्थात् मन में दृष्ट, श्रुत और अनुभूत पदार्थ नियमित हैं । इस प्रकार के अभिमुख और नियमित पदार्थों में जो बोध होता है, वह अभिनिबोध है। अभिनिबोध ही आभिनिबोधिक ज्ञान कहलाता है। इस प्रकार के ज्ञान का जो आवारण करता है उसे आभिनिबोधिक ज्ञानावरणीय कर्म कहते हैं। (ध. 6/15-21) तत्र पञ्चभिरिन्द्रियैर्मनसा च मननं ज्ञानं मतिज्ञानं तदावृणोतीति मतिज्ञानावरणीयम्। पाँच इन्द्रियों तथा मनकी सहायता से होने वाला मननरूप ज्ञान मतिज्ञान है, उसे जो ढंकता है वह मतिज्ञानावरणीय है। (क.प्र./5) श्रुतज्ञानावरणीय सुदणाणं णाम इंदिएहि गहिदत्थादो तदो पुधभूदत्थग्गहणं, जहा सद्दादो घड़ादीणमुवलंभो, धूमादो अग्गिस्सुवलंभोवा।सुदणाणस्स आवरणीयं सुदणाणावरणीयं। इन्द्रियों से ग्रहण किये गये पदार्थ से उससे पृथग्भूत पदार्थ का ग्रहण करना श्रुतज्ञान है - जैसे शब्द से घट आदि पदार्थों का जानना, अथवा धूम से अग्नि का ग्रहण करना । श्रुतज्ञान के आवरण करने वाले कर्म को श्रुतज्ञानावरणीय कहते हैं। (ध. 6/21) मतिज्ञानगृहीतार्थादन्यस्यार्थस्य ज्ञानं श्रुतज्ञानं तदावृणोतीति श्रुतज्ञानावरणीयम्। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.orgPage Navigation
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