Book Title: Prakruti Parichaya Author(s): Vinod Jain, Anil Jain Publisher: Digambar Sahitya PrakashanPage 32
________________ चक्षुदर्शनावरणीय चक्षुर्ज्ञानोत्पादक प्रयत्नानुविद्धस्वसंवेदने रूपदर्शनक्षमोऽहमिति संभावना हेतुश्चक्षुर्दर्शनम् । एतदावृणोतीति चक्षुदर्शनावरणीयम् । चक्षुरिन्द्रिय-सम्बन्धी ज्ञान के उत्पन्न करने वाले प्रयत्न से संयुक्त स्वसंवेदन के होने पर "मैं रूप देखने में समर्थ हूँ,” इस प्रकार की संभावना के हेतु को चक्षुदर्शन कहते हैं । इस चक्षुदर्शन के आवरण करने वाले कर्म को चक्षुदर्शनावरणीय कहते हैं । (ध. 6/33) चक्खविण्णाणुप्पायण कारणं सगसंवेयणं चक्खुदंसणं णाम । तस्सावारयं कम्मं चक्खुदंसणावरणीयं । चाक्षुष विज्ञान को उत्पन्न करने वाला जो स्वसंवेदन है वह चक्षुदर्शन और उसका आवारक कर्म चक्षुदर्शनावरणीय कहलाता है । (ET. 13/355) तत्र चक्षुषा वस्तुसामान्यग्रहणं चक्षुर्दर्शनं तदावृणोतीति चक्षुर्दर्शनावरणीयम् । चक्षु द्वारा वस्तु का सामान्य ग्रहण चक्षुर्दर्शन कहलाता है, उसका आवरण करने वाला कर्म चक्षुर्दर्शनावरणीय है । (क.प्र./7) अचक्षुदर्शनावरणीय (चक्षुइन्द्रिय विहाय) शेषेन्द्रिय मनसां दर्शनमचक्षुर्दर्शनम्। तदावृणोतीत्य चक्षुर्दर्शनावरणीयम्। चक्षुरिन्द्रिय के अतिरिक्त शेष चार इन्द्रियों के और मन के दर्शन को अचक्षुदर्शन कहते हैं । इस अचक्षुदर्शन को जो आवरण करता है वह अचक्षुदर्शनावरणीय कर्म है । (ध 6/33) शेषैः स्पर्शनादीन्द्रियैर्मनसा च वस्तुसामान्यग्रहणमचक्षुर्दर्शनं तदावृणोतीत्यचक्षुर्दर्शनावरणीयम् । चक्षु के अतिरिक्त शेष स्पर्शन आदि इन्द्रियों तथा मनके द्वारा वस्तु का सामान्यग्रहण अचक्षुदर्शन है, उसका आवरण करने वाला कर्म अचक्षुदर्शनावरणीय है । अवधिदर्शनावरणीय अवधेर्दर्शनं अवधिदर्शनं । तदावृणोतीत्यवधिदर्शनावरणीयम् । Jain Education International (क.प्र./7) (11)' For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.orgPage Navigation
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