Book Title: Prakruti Parichaya
Author(s): Vinod Jain, Anil Jain
Publisher: Digambar Sahitya Prakashan

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Page 104
________________ यस्स मणुसगइपाओग्गसंठाणं होदि तं मणुसगइपाओग्गाणुपुब्बीणामं । जिस कर्म के उदय से मनुष्य गति को गये हुए और विग्रह गति में वर्तमान व के मनुष्यगति के योग्य संस्थान होता है, वह मनुष्यगति प्रायोग्यानुपूर्वी नामकर्म है । (ET 6/76 34T) देवगति प्रायोग्यानुपूर्वी नामकर्म जस्स कम्मस्स उदएण देवगइं गयस्स जीवस्स विग्गहगईए वट्ठमाण देवगइपाओग्ग संठाणं होदि तं देवगइपाओगाणुपुव्वीणामं । जिस कर्म के उदय से देवगति को गये हुए और विग्रहगति में वर्तमान जीव के देवगति के योग्य संस्थान होता है, वह देवगति प्रायोग्यानुपूर्वी नामकर्म है। (ET 6/7634T) अगुरुलघु नाम कर्म जस्स कम्मस्सुदएण जीवस्स सगसरीरं गुरुलहुगभाव विवज्जियं होदि तं कम्मगुरु अलहु णाम । जिस कर्म के उदय से जीव का अपना शरीर गुरु और लघु भाव से रहित होता है वह अगुरुलघु नामकर्म है । (ध 13 / 364) अगुरुलघुनाम स्वस्वरीरं गुरुत्वलघुत्ववर्जितं करोति । अगुरुलघु नाम कर्म अपने - अपने शरीर को गुरुत्व और लघुत्व से रहित करता है । (क. प्र. / 30 ) यस्योदयादयः पिण्डवद् गुरुत्वान्नाधः पतति न चार्कतूलवल्लघुत्वादूर्ध्वं गच्छति तदगुरुलघुनाम । जिसके उदय से लोहे के पिण्ड के समान गुरु होने से न तो नीचे गिरता है और न अर्कतूल के समान लघु होने से ऊपर जाता है वह अगुरुलघु नामकर्म ( स. सि. 8 / 11 ) है। विशेष - यदि जीवके अगुरुलघुकर्म न हो, तो या तो जीव लोहे के गोलेके समान भारी हो जायेगा, अथवा आकके तूल (रुई) के समान हलका हो जायेगा। किन्तु ऐसा है नहीं, क्योंकि, वैसा पाया नहीं जाता है । (ET. 6/58) उपघात नामकर्म कम्मं जीवपीडाहेउ अवयवे कुणदि, जीवपीडाहेदुदव्वाणि वा विसासि Jain Education International (83) For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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