Book Title: Prakruti Parichaya
Author(s): Vinod Jain, Anil Jain
Publisher: Digambar Sahitya Prakashan

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Page 131
________________ दातृदेयादीनामन्तरंमध्यमेतीत्यन्तरायः। जो दाता और देय आदि का अन्तर करता है अर्थात् बीच में आता है वह अन्तराय कर्म है। (स.सि.8/4) विघ्नकरणमन्तरायस्य॥ विघ्नकरना अन्तराय का कार्य है। (त.सू./6/27) दातृपात्रयोर्देयादेययोश्च अन्तरंमध्यम एति गच्छतीत्यन्तरायः जो पात्र और दाता के वा दाता और देय आदि के बीच में आता है, अन्तर कराता है , विघ्न डालता है, वह अन्तराय कर्म है। (त.वृ. श्रु. 8/4) अंतराय कर्म के भेद अंतराइयस्य कम्मस्य पंचपयडीओ, दाणंतराइयं लाहंतराइयं, भोगंतराइयं परिभोगंतराइयं वीरियंतराइयं चेदि। अंतराय कर्म की पाँच प्रकृतियां हैं - दानान्तराय, लाभान्तराय, भोगान्तराय, परिभोगान्तराय और वीर्यान्तराय। (ध 6/78) दानान्तराय कर्म जस्स कम्मस्स उदएण देंतस्स विग्धं होदितं दाणंतराइयं । जिस कर्म के उदय से दान देते हुए जीव के विघ्न होता है, वह दानान्तराय कर्म है। (ध 6/78) लाभान्तराय कर्म जस्स कम्मस्स उदएण लाहस्स विग्छ होदितल्लाहंतराइयं । जिस कर्म के उदय से लाभ में विघ्न होता है, वह लाभान्तराय कर्म है। (ध 6/78) भोगान्तराय कर्म जस्स कम्मस्सउदएण भोगस्स विग्धं होदितं भोगतराइयं । जिस कर्म के उदय से भोग में विघ्न होता है, वह भोगान्तराय कर्म है। (ध 6/78) मुक्त्वा परिहातव्यो मोगस्तस्य विघ्नहेतुर्भोगान्तरायम्। जो एक बार भोग कर छोड़ दिया जाता है उसे भोग कहते हैं। भोगों के अन्तराय का कारण भोगान्तराय है। (क.प्र./40) (110) Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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