Book Title: Prakruti Parichaya
Author(s): Vinod Jain, Anil Jain
Publisher: Digambar Sahitya Prakashan

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Page 127
________________ काय, वचन और मनकी सरलता तथा अविसंवाद ये उस (अशुभ) से विपरीत हैं । उसी प्रकार पूर्व सूत्र की व्याख्या करते हुए च शब्द से जिनका समुच्चय किया गया है, उनके विपरीत आसवों का ग्रहण करना चाहिए। जैसे - धार्मिक पुरुषों व स्थानों का दर्शन करना, आदर सत्कार करना, सद्भाव रखना, उपनयन, संसार से डरना, और प्रमाद का त्याग करना आदि । ये ( स. सि. 6/23) Hy सब शुभ नामकर्म के आसव के कारण हैं ।. गोत्रकर्म गमयत्युच्च नीच कुलमिति गोत्रम् । जो उच्च और नीच कुल को ले जाता है, वह गोत्रकर्म है । उच्चैर्नीचैश्च गूयते शब्द्यत इति वा गोत्रम् । जिसके द्वारा जीव उच्च नीच गूयते अर्थात् कहा जाता है वह गोत्रकर्म है। (स.सि.8/4) संताणकमेणागयजीवायरणस्स गोदमिदि सण्णा । संतानक्रम से चला आया जो आचरण उसकी गोत्र संज्ञा है । (ध 6/13) गुरु-लघुभाजनकारककुम्भकारवदुच्चनीचगोत्रकरणता । छोटे-बड़े घट आदि को बनाने वाले कुंभकार की भांति उच्च तथा नीच कुल का करना गोत्रकर्म की प्रकृति है । (द्र.सं./टी/33/93) ( गो . क. मू/13) गोत्रकर्म के भेद गोदस्य कम्मस्स दुवे पयडीओ, उच्चागोदं चेव णीचागोदं चेव । कर्म की दो प्रकृतियां हैं उच्चगोत्र और नीच गोत्र उच्च गोत्रकर्म Jain Education International जस्स कम्मस्स उदएण उच्चागोदं होदि तमुच्चागोदं । जिस कर्म के उदय से जीवों के उच्चगोत्र होता है, वह उच्चगोत्र कर्म है । (ध 6/77) (106) For Private & Personal Use Only (ध 6/77) दीक्षा योग्यसाध्वाचाराणां साध्वाचारैः कृतसम्बन्धानां आर्यप्रत्ययाभिधान व्यवहारनिबंधनानां पुरुषाणां सन्तानः उच्चैर्गोत्रं तत्रोत्पत्तिहेतुकर्माप्युचैर्गोत्रम् | www.jainelibrary.org

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