Book Title: Prakruti Parichaya Author(s): Vinod Jain, Anil Jain Publisher: Digambar Sahitya PrakashanPage 80
________________ 'वैक्रियिक शरीर' यह संज्ञा है। (ध. 6/69) अष्टगुणैश्वर्ययोगादेकानेकाणुमहच्छरीरविधिकरणं विक्रिया, सा प्रयोजनमस्येति वैक्रियिकम्। अणिमा आदि आठ गुणों के ऐश्वर्य के सम्बन्ध से एक, अनेक, छोटा, बड़ा आदि नाना प्रकार का शरीर करना विक्रिया है । यह विक्रिया जिस शरीर का प्रयोजन है वह वैक्रियिक शरीर है। (स.सि. 2/36) आहारक शरीर जस्स कम्मस्स उदएण आहारवग्गणाए खंधा आहारसरीर सरूवेण परिणमंतितस्स आहारसरीरमिदिसण्णा। जिस कर्म के उदय से आहार वर्गणा के स्कंध आहार शरीर के स्वरूप से परिणत होते हैं, उस कर्म के 'आहार शरीर' यह संज्ञा है। (ध. 6/69) आहरति आत्मसात्करोतिसूक्ष्मानर्थाननेनेति आहारः। जिसके द्वारा आत्मा सूक्ष्म पदार्थों को ग्रहण करता है, अर्थात् आत्मसात् करता है उसे आहारक शरीर कहते हैं। (ध. 1/294) णिण्हा धवला सुगंधा सुठुसुंदरा त्ति ... अप्पडिहया सुहुमा णाम । आहारदव्वाणं मज्झे णिउणदरं णिण्णदरंखधं आहारसरीरणिप्पायणढें आहारदिघेण्हदि त्ति आहारयं । निपुण अर्थात् अण्हा और मृदु, स्निग्ध अर्थात् धवल, सुगन्ध, सुष्ठ और सुन्दर ... अप्रतिहतका नाम सूक्ष्म है। आहार द्रव्यों में से आहारक शरीर को उत्पन्न करने के लिए निपुणतर और स्निग्धतर स्कन्ध को आहरण करता है अर्थात् ग्रहण करता है, इसलिए आहारक कहलाता है। (ध. 14/327) सूक्ष्मपदार्थनिर्ज्ञानार्थमसंयमपरिजिहीर्षयावाप्रमत्तसंयतेनाहियते निर्वय॑ते तदित्याहारकम्। सूक्ष्म पदार्थ का ज्ञान करने के लिए या असंयम को दूर करने की इच्छा से प्रमत्तसंयम जिस शरीर की रचना करता है वह आहारक शरीर है। (स.सि. 2/36) तैजस शरीर नामकर्म जस्स कम्मस्स उदएण तेजइयवग्णक्खंधा णिस्सरणाणिस्सरण (59) Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.orgPage Navigation
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