Book Title: Prakruti Parichaya Author(s): Vinod Jain, Anil Jain Publisher: Digambar Sahitya PrakashanPage 95
________________ असंप्राप्त और शिराबद्ध हड्डियां होती हैं वह असंप्राप्तासृपाटिका शरीरसंहनन नामकर्म हैं। (ध 6/74) स्नायुभिर्बद्धास्थि असंप्राप्तसरिसृपादिसहननम्। जिसमें स्नायुओं से हड्डियाँ बंधी होती हैं वह असंप्राप्तसरीसृपादि शरीर संहनन हैं। (ध 13/370) यतः परस्परासंबद्धास्थिबन्धोभवति तदसंप्राससृपाटिकासंहननं नाम । जिसके कारण अस्थिबन्ध परस्पर असम्बद्ध होता है, उसे असम्प्राप्तसृपाटिकासंहनन कहते हैं। (क.प्र./28) अन्तरसंप्राप्तपरस्परास्थिसन्धि बहिःसिरास्नायुमांसघटितम् असंप्राप्तसृपाटिकासंहननम्। जिसमें भीतर हड्डियों का परस्पर बन्ध न हो मात्र बाहर से वे सिरा स्नायु मांस आदि लपेट कर संघटित की गयी हों वह असंप्राप्तसृपाटिका संहनन (रा.वा 8/11) 'वर्ण नामकर्म' जस्स कम्मस्सउदएणजीवसरीरेवण्णणिप्फत्ती होदितस्सकम्मक्खंध स्सवण्णसण्णा। जिस कर्म के उदय से जीव के शरीर में वर्ण की उत्पत्ति होती है, उस कर्म स्कंध की 'वर्ण' संज्ञा है। (ध 6/55). तत्तत्स्वस्वशरीराणां श्वेतादिवर्णान्यत्करोति तद्वर्णनाम। अपने-अपने शरीर का श्वेत आदि वर्ण जिसके कारण होता है, उसे वर्ण नाम कहते हैं। (क.प्र./28) यद्धेतुको वर्णविभागस्तद्वर्णनाम। जिसके निमित्त से वर्ण में विभाग होता है वह वर्ण नामकर्म है। (स.सि. 8/11) विशेष - इस कर्मके अभाव में अनियत वर्णवाला शरीर हो जाएगा। किन्तु ऐसा देखा नहीं जाता क्योंकि, भौंरा, कोयल, हंस और बगुला आदिमें निश्चित वर्ण पाये जाते हैं। (ध. 6/55) (74) Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.orgPage Navigation
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