Book Title: Prakruti Parichaya Author(s): Vinod Jain, Anil Jain Publisher: Digambar Sahitya PrakashanPage 87
________________ संस्थाननामकर्म, कुब्जशरीरसंस्थाननामकर्म, वामनशरीरसंस्थाननामकर्म और हुंडशरीरसंस्थाननामकर्म। (ध 6/70) समचतुरसशरीरसंस्थाननामकर्म चतुरं शोभनम्, समन्ताच्चतुरं समचतुरम्, समानमानोन्मानमित्यर्थः। समचतुरं च तत् सरीरसंस्थानं च समचतुरशरीरसंस्थानम् । तस्य संस्थानस्य निर्वर्तकं यत्कर्म तस्याप्येषैवसंज्ञा, कारणे कार्योपचारावा चतुर का अर्थ शोभन है, सब ओर से चतुर समचतुर कहलाता है। समान मान और उन्मानवाला, वह उक्त कथन का तात्पर्य है। समचतुर ऐसा जो शरीरसंस्थान वह समचतुरशरीर संस्थान है। उस संस्थान का निर्वर्तक जो कर्म है उसकी भी कारण में कार्य का उपचार करने से यही संज्ञा होती है। (ध 13/368) तत्रयतःसर्वत्र दशताललक्षणलक्षितप्रशस्तसंस्थानशरीराकारो भवति तत्समचतुरससंस्थानं नाम। जिससे सब जगह दशताल (समान माप) लक्षणयुक्त प्रशस्त संस्थानसहित शरीर का आकार होता है, वह समचतुरस्र संस्थान है। (क.प्र./24) तत्रोधिोमध्येषु समप्रविभागेन शरीरावयवसन्निवेशव्यवस्थापन कुशलशिल्पिनिर्वर्तितसमस्थितिचक्रवत् अवस्थानकर समचतुरससंस्थाननाम। ऊपर नीचे मध्य में कुशल शिल्पी के द्वारा बनाये गये समचक्र की तरह समान रूप से शरीर के अवयवों की रचना होना आकार बनना समचतुरस संस्थान है। (रा.वा. 8/11) ऊर्ध्वाधोमध्येषु समप्रविभागेन शरीरावयवसन्निवेशव्यवस्थापन कुशलशिल्पिनिर्वर्तितसमस्थितचक्रवदवस्थानकरं समचतुरससंस्थाननाम। जिसके उदय से ऊपर, नीचे, मध्य में समविभाग से शरीर के अवयवों का सन्निवेशव्यवस्थित होता है, जैसे कि कुशल शिल्पि द्वारा रचित समस्थित चक्र होता है, इस तरह सुन्दर आकार को करने वाला समचतुरस्र संस्थान नाम कर्म है। . (त.वृ. भा.8/11) (66) For Private & Personal Use Only Jain Education International www.jainelibrary.orgPage Navigation
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