Book Title: Prakruti Parichaya Author(s): Vinod Jain, Anil Jain Publisher: Digambar Sahitya PrakashanPage 35
________________ यदुदयाद्देवादिगतिषु शारीरमानससुखप्राप्तिस्तत्सद्वेद्यम् । प्रशस्तं वेद्यं सद्वे-द्यमिति। जिसके उदय से देवादिगतियों में शरीर और मन संबंधी सुख की प्राप्ति होती है वह सद्वेद्य है। प्रशस्त वेद्य का नाम सद्वेद्य है। (स.सि. 8/8) रतिमोहनीयोदयबलेन जीवस्य सुखकारणेन्द्रियविषयानुभावनं कारयति तत्सातवेदनीयं। रतिमोहनीय कर्म के उदय से सुख के कारणभूत इंद्रियों के विषयों का जो अनुभव कराता है वह सातवेदनीय कर्म है। (गो.क./जी.प्र./25) असातावेदनीय असादं दुक्खं, तं वेदावेदि मुंजावेदित्ति असादावेदणीयं । असाता नाम दुख का है, उसे जो वेदन या अनुभवन कराता है, उसे असाता वेदनीय कर्म कहते है। (ध 6/35) जीवस्स सुहसहावस्स दुक्खुप्पाययं दुक्खपसमणहेदुदव्वाणमवसारयं चकम्ममसादावेदणीयंणाम। सुख स्वभाव वाले जीव को दुःख का उत्पन्न करने वाला और दुःख के प्रशमन करने में कारणभूत द्रव्यों का अपसारक कर्म असातावेदनीय कहा जाता है। (ध 13/357) इन्द्रियदुःखकारणविषशस्त्राग्निकण्टकादिद्रव्यप्राप्तिनिमित्तमसातावेदनीयम्। इन्द्रिय-दुःख के कारण विष, शस्त्र, अग्नि, कंटक आदि द्रव्यों की प्राप्ति जिसके द्वारा हो, वह असातावेदनीय है। (क.प्र./9) नारकादिषु गतिषु नानाप्रकारजातिविशेषावकीर्णासु कायिकं बहुविधं मानसं वाऽतिदुःसहं जन्मजरामरणप्रियविप्रयोगऽप्रिय-संयोगव्याधिवधबन्धादिजनितं दुःखं यस्य फलं प्राणिनां तदसवेद्यम्। अप्रशस्तं वेद्यम् असद्धेद्यम्। जिसके उदय से नाना प्रकार जाति रूप विशेषों से अवकीर्ण नरक आदि गतियों में बहुत प्रकार के कायिक, मानसिक, अतिदुःसह जन्म, जरा, मरण, प्रियवियोग अप्रियसंयोग व्याधि वध और बन्ध आदि से जन्य दुःख का अनुभव होता है वह असाता वेदनीय है, अप्रशस्त वेदनीय असद्वेदनीय है। __(रा.वा/8/8) (14) Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.orgPage Navigation
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