Book Title: Prakruti Parichaya Author(s): Vinod Jain, Anil Jain Publisher: Digambar Sahitya PrakashanPage 37
________________ अतः अन्य विकल्पों का भी संग्रह हो जाता है । वे विकल्प निम्न प्रकार हैं. अशुभप्रयोग, परपरिवाद, पैशुन्य पूर्वक अनुकम्पाभाव, परपरिताप, अगोपांगच्छेदन, भेदन, ताड़न, त्रासन, तर्जन, भर्त्सन, तक्षण, विशंसन, बन्धन, रोधन, मर्दन, दमन, वाहन, विहेडन, हेपन, शरीर को रूखा कर देना, परनिन्दा, आत्मप्रशंसा, संकलेशप्रादुर्भाव जीवन को यों ही बरबाद करना, निर्दयता, हिंसा, महाआरम्भ, महापरग्रिह, विश्वासघात, कुटिलता, पापकर्मजीवित्व, अनर्थदण्ड, विषमिश्रण, बाण जाल पाश, रस्सी, पिंजरा, यन्त्र, आदि हिंसा के साधनों का उत्पादन, जबरदस्ती शस्त्र देना, और दुखादि पापमिश्रित भाव । ये सब दुःख आदिक परिणाम अपने में, परमें और दोनों में रहने वाले होकर असातावेदनीय के आसव के कारण होते हैं । (RT.AT. 6/11) अन्येषां यो दुःखमज्ञोऽनुकम्पां त्यक्त्वा तीव्रं तीव्रसंक्लेशयुक्तः । बन्धच्छेदैस्ताडनैर्मारणैश्च दाहै रोधैश्चापि नित्यं करोति । सौख्यं कांक्षन्नात्मनो दुष्टचित्तो नीचो नीचं कर्म कुर्वन्सदैव । पश्चात्तापं तापिना यः प्रयातिबध्यात्येषोऽसा तवेद्यं सदैवम् । रोगाभिभवान्नष्टवुद्धिचेष्टः कथमेव हितोद्योगं कुर्यात् । जो मूर्ख मनुष्य दयाका त्याग कर तीव्र संक्लेश परिणामी होकर अन्य प्राणी को बाँधना, ताड़ना, पीटना, प्राण लेना, खाने के और पीने के पदार्थों से वंचित रखना ऐसे ही कार्य हमेशा करता है । ऐसे कार्य में ही अपने को सुखी मानकर जो नीच पुरुष ऐसे ही कार्य हमेशा करता है, ऐसे कार्य करते समय जिनके मन में पश्चात्ताप होतानहीं, उसी को निरन्तर असातावेदनीय कर्म का बध होता है, जिससे उसका देह हमेशा रोग पीड़ित रहता है, तब उसकी बुद्धि व क्रियाएँ नष्ट होती हैं । वह पुरुष अपने हितका उद्योग कुछ भी नहीं कर सकता । (भ.आ.वि / 446 ) मोहनीय मुह्यत इति मोहणीयम् । अथवा मोहयतीति मोहनीयम् । मोहित किया जाता है वह मोहनीय कर्म है । अथवा जो मोहित करता है, वह मोहनीय कर्म है । ( ध 6 / 11 ) आत्मानं मोहयतीति मोहनीयं मद्यवत् । शराब की तरह जो आत्मा को मोहित करे, वह मोहनीय है । (क.प्र./3) Jain Education International • (16) For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.orgPage Navigation
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