Book Title: Prakruti Parichaya Author(s): Vinod Jain, Anil Jain Publisher: Digambar Sahitya PrakashanPage 57
________________ मिथ्यादृष्टि होना, तीव्र लोभ होना, सदा निर्दयी बने रहना, सदा जीवघात करना, सदा ही झूठ बोलने में प्रेम मानना, सदा परधन हरने में लगे रहना, नित्य मैथुन सेवन करना. काम भोगों की अभिलाषा सदा ही जाज्वल्यमान रख किन भगवान की आसादना करना, साधु धर्म का उच्छेद करना, 'बिल्ला, कुत्ते , मुर्गे इत्यादि पापी प्राणियों को पालना, शीलव्रत रहित बने रहना और आरम्भ परिग्रह को अति बढ़ाना, कृष्ण लेश्या रहना, चारों रौद्रध्यान में लगे रहना, इतने अशुभ कर्म नरकायु के आस्रव के हेतु हैं। अर्थात् जिन कर्मों को क्रूरकर्म कहते हैं और जिन्हें व्यसन कहते हैं, वे सभी नरकायु के कारण हैं। (त.सा. 4/30,34) मिच्छोहु महारंभो णिस्सीलो तिव्वलोहसंजुत्तो। णिरयाउगं णिबंधइपावमई रुद्दपरिणामी ॥ जो जीव मिथ्यातमरूप मिथ्यादृष्टि होइ, बहुत आरंभी होइ, शील रहित होई, तीव्र लोभ संयुक्त होइ, रौद्र परिणामी होइ, पाप कार्य वि. जाकी बुद्धि होइ सो जीव नरकायु को बाँधै है। . (गो.क.मू. 804) नरकायु विशेष के बन्धयोग्य परिणाम - धम्मदयापरिचत्तो अमुक्कवइरो पयंडकलहयरो। बहुकोही किण्हाएजम्मदिधूमादिचरिमंते ।। .बहुसण्णा णीलाए जम्मदितं चेव धूमंतं । काऊए संजुत्तो जम्मदि धम्मादिमेघंतं ॥ दया धर्म से रहित, वैरको न छोड़ने वाला, प्रचंड कलह करने वाला और बहुत क्रोधी जीव कृष्ण लेश्या के साथ धूमप्रभा से लेकर अन्तिम पृथ्वी तक जन्म लेता है । आहारादि चारों संज्ञाओं में आसक्त ऐसा जीव नील लेश्या के साथ धूमप्रभा पृथ्वी तक जन्म लेता है । कापोत लेश्या से संयुक्त होकर धर्मा से लेकर मेघा पृथ्वी तक में जन्म लेता है। (ति.प. 2/297-299, 302) कर्मभूमिज तिर्यंच आयु के बन्धयोग्य परिणाम - माया तैर्यग्योनस्य। माया तिर्यचायुका आस्रव है। (त.सू. 6/16) मिथ्यात्वोपेतधर्मदेशना निःशीलतातिसन्धानप्रियतानीलकापोतलेश्यार्तध्यानमरणकालतादिः। __(36) Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.orgPage Navigation
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