Book Title: Prakruti Parichaya Author(s): Vinod Jain, Anil Jain Publisher: Digambar Sahitya PrakashanPage 67
________________ हैं, अकृपिष्ठ चारित्र अर्थात् क्रूराचारी हैं, तथा वैर भाव में रुचि रखते हैं वे असुरों में उत्पन्न होते हैं । (fa. 3/200-209) व्यन्तर तथा नीच देवों की आयु के बन्ध योग्य परिणाम णाणस्स केवलीणं धम्मस्साइरिय सव्वसाहूणं । माइय अवण्णवादी खिब्भिसिय भावणं कुणइ ॥ मंताभिओगकोदुगभूदीयम्मं परंजदे जोहु । इदिढरससादहेदुं अभिओगं भावणं कुणइ ॥ श्रुतज्ञान, केवली व धर्म, इन तीनों के प्रति मायावी अर्थात् ऊपर से इनके प्रति प्रेम व भक्ति दिखाते हुए, परन्तु अन्दर से इनके प्रति बहुमान या आचरण से रहित जीव, आचार्य, उपाध्याय व साधु परमेष्ठी में दोषों का आरोपण करने वाले, और अवर्णवादी जन ऐसे अशुभ विचारों से मुनि किल्विष जाति के देवों में जन्म लेते हैं । मन्त्राभियोग्य अर्थात् कुमारी वगैरह में भूतका प्रवेश उत्पन्न करना, कौतुहलोपदर्शन क्रिया अर्थात् अकाल में जलवृष्टि आदि करके दिखाना, आदि चमत्कार, भूतिकर्म अर्थात् बालकादिकों की रक्षा के अर्थ मन्त्र प्रयोग के द्वारा भूतों की क्रीड़ा दिखानाये सब क्रियाएँ ऋद्धि,गारव या रस गौरव, या सात गौरव दिखाने के लिए करता है सो अभियोग्य जाति के वाहन देवों में उत्पन्न होता है । (भ.आ. 181 ) मरणे विराहिदम्मि, य केई कंदप्पकिव्विसा देवा 1 अभियोगा संमोहप्पहूदीसुरदुग्गदीसु जायंते जे सच्चवयण हीणा, हस्सं कुव्वंति बहुजणे णियमा । कंदप्परक्तहिदया, ते कंदप्पेसु जायंति 11 भूमिताभियोग कोदूहलाइसंजुत्ता जवणे पट्टा, वाहणदेवेसु ते होत तित्थयरसंघमहिमाआगमगंथादिएस पडिकूला दुब्विणया णिगदिल्ला जायंते किव्विंससुरेसुं उप्पहउवएसयरा विप्पडिवण्णा जिणिंदमग्गम्मि मोहेणं संमोघा, संमोहसुरेसु जायंते सवल चरिता कूरा, उम्मग्गट्ठा णिदाणकदभावा मंदकसायाणुरदा, बंधंते अप्पइद्धिअसुराऊं Jain Education International (46) For Private & Personal Use Only 11 1 || । II(fa.. 3/204-8) 1 || www.jainelibrary.orgPage Navigation
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