Book Title: Prakruti Parichaya
Author(s): Vinod Jain, Anil Jain
Publisher: Digambar Sahitya Prakashan

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Page 75
________________ जिसके कारण प्राणी को देवपर्याय होती है, वह देवगति है। (क.प्र./18) देवगतिनामकर्मोदये सत्यभ्यन्तरे हेतौ बाहविभूतिविशेषैःद्वीपसमुद्रादि प्रदेशेषु यथेष्टं दीव्यन्ति क्रीडन्तीति देवाः। अभ्यन्तर कारण देवगति नामकर्म के उदय होने पर नाना प्रकार की बाह्य विभूति से द्वीप समुद्रादि अनेक स्थानों में इच्छानुसार क्रीड़ा करते हैं वे देव कहलाते हैं। (स.सि. 4/1) जातिनामकर्म जातिर्जीवानां सदृशपरिणामः । यदि जातिनामकर्म न स्यात् मत्कुणा मत्कुणैः, वृश्चिका वृश्चिकैः, पिपीलिकाः पिपीलिकाभिः, ब्रीहयोः ब्रीहिभिः शालयःशालिभिः समानानजायरेन् । दृश्यते च सादृश्यम् । तदो जत्तो कम्मक्खंघादोजीवाणं भूओ सरिसत्तमुप्पज्जदे, सो कम्मक्खंघो कारणे कज्जुवयारादोजादित्ति भण्णदे। जीवों के सदृश परिणाम को जाति कहते हैं। यदि जाति नामकर्म न हो, तो खटमल खटमलों के साथ, बिच्छू बिच्छुओं के साथ चीटियां चीटियों के साथ, धान्य धान्य के साथ और शालि शालि के साथ समान न होगी। किन्तु इन सब में परस्पर सदृशता दिखाई देती है। इसलिए जिस कर्म स्कंध से जीवों के अत्यंत सदृशता उत्पन्न होती है वह कर्म स्कंध कारण में कार्य के उपचार से 'जाति' इस नामवाला कहलाता है। (ध. 6/51) एइंदिय - वेइंदिय-तेइंदिय-चउरिंदिय-पंचिंदियभाव णिव्वत्तयंजं कम्म तंजादिणाम। जो कर्म एकेन्द्रिय, द्वीन्द्रिय, त्रीन्द्रिय, चतुरिन्द्रिय और पंचेन्द्रिय भाव का बनाने वाला है वह जाति नामकर्म है।। (ध. 13/363) नरकादिगतिष्वव्यभिचारिणासादृश्येनैकीकृतोऽर्थात्माजातिः। तन्निमित्तं जाति नाम। नारकादि गतियों में जिस अव्यभिचारी सादृश्यसे एकपने का बोध होता है, वह जाति है। इसका निमित्त जाति नामकर्म है। (स.सि. 8/11) विशेष - यदि जीवोंका सदृश परिणाम कर्मके आधीन न होवे, तो चतुरिन्द्रिय जीव घोड़ा, हाथी, भेड़िया, बाघऔर छबल्ल आदिके आकारवाले हो जायेंगे तथा पंचेन्द्रिय जीव भी भ्रमर, मत्कुण, शलभ, इन्द्रगोप, क्षुल्लक, अक्ष (54) For Private & Personal Use Only Jain Education International www.jainelibrary.org

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