Book Title: Prakruti Parichaya Author(s): Vinod Jain, Anil Jain Publisher: Digambar Sahitya PrakashanPage 63
________________ लिया है, पश्चात तीर्थंकर के पाद मूल में क्षायिक सम्यकदर्शन प्राप्त किया है, ऐसे कितने ही सम्यक्दृष्टि पुरुष भी भोगभूमि में उत्पन्न होते हैं । इस प्रकार कितने ही मिथ्यादृष्टि मनुष्य निर्ग्रन्थ यतियों को दानादिदेकर पुण्यका उदय आने पर भोगभूमि में उत्पन्न होते हैं। शेष कितने ही मनुष्य आहार दान, अभयदान, विविध प्रकार की औषध तथा ज्ञान के उपकरण पुस्तकादि के दान को देकर भोगभूमि में उत्पन्न होते हैं। .. (ति.प. 4/369-75) कुभोग भूमिज मनुष्यायुके बन्धयोग्य परिणाम मिच्छत्तम्मिरत्ताणं,मंदकसाया पियंवदा कुडिला । धम्मफलं मग्गंता, मिच्छादेवेसु भत्तिपरा ॥ सुद्धोदणसलिलोदण,कंजियअसणादिकट्ठसुकिलिट्ठा । पंचम्गितवं विसमं कायकिलेसंच कुव्वंता ॥ सम्मत्तरयणहीणा, कुमाणुसालवणजलधिदीवेसुं । उपजति अधण्णा, अण्णाणजलम्मिमज्जंता ॥ अदिमाणगविदाजे, साहूण कुणंति किंचि अवमाणं । सम्मत्ततवजुत्ताणं, जे णिग्गंथाणं दूसणादेंति जे मायाचाररदा, संजमतवजोगवज्जिदापावा । इड्ढिरससादगारव, गरुवाजे मोहमावण्णा थूलसुहुमादिचारं, जे णालोचंति गुरुजणसमीवे । सज्झाय वंदणाओ, जेगुरुसहिदाण कुव्वंति ॥ जे छंडिय मुणिसंघ, वसंति एकाकिणो दुराचारा । जे कोहेण य कलहं, सव्वेसिंतो पकुव्वंति आहारसण्ण सत्ता, लोहकसाएणजणिदमोहाजे । धरिऊण जिणलिंग, पावं कुव्वंति जे घोरं जे कुव्वंतिण भत्तिं, अरहंताणं तहेव साहूणं । जे वच्छलविहीणा, चाउव्वण्णम्मिसंघम्मि ॥ जे गेण्हंति सुवण्णप्पहुदि जिणलिंग धारिणो हिट्ठा । कण्णाविवाहपहुंदि, संजदरूवेण जे पकुव्वंति जे मुंजंति विहिणा, मोणेणं घोर पावसंलग्गा अण अण्णदरुदयादो, सम्मत्तं जे विणासंति ॥ (42) For Private & Personal Use Only Jain Education International www.jainelibrary.orgPage Navigation
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