Book Title: Prakruti Parichaya
Author(s): Vinod Jain, Anil Jain
Publisher: Digambar Sahitya Prakashan

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Page 61
________________ 2. हिंसा की अपेक्षा - जीव घात करने पर, हा ! मैंने दुष्ट कार्य किया है, जैसे दुःख व मरण हम को अप्रिय हैं सम्पूर्ण प्राणियों को भी उसी प्रकार वह अप्रिय हैं, जगत में अहिंसा ही श्रेष्ट व कल्याणकारिणी है । परन्तु हम हिंसादिकों का त्याग करने में असमर्थ हैं । ऐसे परिणाम । 3. असत्य की अपेक्षा- झूठे पर दोषों को कहना दूसरों के सद्गुण देखकर मन में द्वेष करना, असत्य भाषण करना यह दुर्जनों का आचार है । साधुओं के अयोग्य ऐसे निंद्य भाषण और खोटे कामों में हम हमेशा प्रवृत्त हैं, इसलिए हममें सज्जनपना कैसे रहेगा ? ऐसा पश्चात्ताप करने रूप परिणाम | 4. चोरी की अपेक्षा - दूसरों का धन हरण करना, यह शस्त्रप्रहारसे भी अधिक दुखःदायक है, द्रव्यका विनाश होने से सर्वकुटुम्बका ही विनाश होता है, इसलिए मैंने दूसरों का धन हरण किया सो अयोग्य कार्य हमसे हुआ है, ऐसे परिणाम । 5. ब्रह्मचर्य की अपेक्षा - हमारी स्त्रीका किसी ने हरण करने पर जैसा हमको अतिशय कष्ट दिया है वैसा उनको भी होता है यह अनुभव से प्रसिद्ध है। ऐसे परिणाम होना । 6. परिग्रहकी अपेक्षा गंगादि नदियाँ हमेशा अपना अनन्त जल लेकर समुद्र में प्रवेश करती हैं तथापि समुद्र की तृप्ति होती ही नहीं । यह मनुष्य प्राणी भी धन मिलने से तृप्त नहीं होता है । इस तरह के परिणाम दुर्लभ हैं । ऐसे परिणामों से मनुष्यपना की प्राप्ति होती है । (भ.आ.वि. 446) 11 पयडीए तणुकसाओ दाणरदीसीलसंजमविहीणो । मज्झिमगुणेहिं जुत्तोमणुवाऊं बधदे जीवो जो जीव विचार बिना प्रकृति स्वभाव ही करि मंद कषायी होइ, दान विषै प्रीतिसंयुक्त होइ, शील संयम कर रहित होइ, न उत्कृष्ट गुण न दोष ऐसे मध्यम गुणनिकर संयुक्त होइ सो जीव मनुष्यायु कौं बाँध है । (गो.क.मू. 806 ) कुलकरों की आयु के बन्धयोग्य परिणाम एदे चउदस मणुओ, पदिसुदिपहुदि हु णाहिरायंता । पुव्वभवम्मि विदेहे, रायकुमारामहाकुले जादा ॥ कुसला दाणादीसुं, संजमतवणाणवंतपत्ताणं । णियजोग्ग अणुट्ठाणा, मद्दव अज्जवगुणेहिं संजुत्ता ॥ Jain Education International (40) For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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