Book Title: Prakruti Parichaya Author(s): Vinod Jain, Anil Jain Publisher: Digambar Sahitya PrakashanPage 53
________________ धारण के प्रति जाता है वह आयुकर्म है । जो पुद्गल मिथ्यात्व आदि बंधकारणों के द्वारा नरक आदि भव- धारण करने की शक्ति से परिणत होकर जीव में निविष्ट होते हैं, वे ‘आयु’ इस संज्ञा वाले होते हैं । (ध. 6/12) शरीर आत्मानमेति धारयतीत्यायुष्यं श्रृङ्खलावत् । श्रृंखलाकी तरह जो शरीर में आत्मा को रोक रखता है, वह आयु कर्म है । (क. प्र. / 3 ) एत्यनेन नारकादिभवमित्यायुः । जिसके द्वारा नारक आदि भव को जाता है वह आयुकर्म है । (स.सि. 8 / 4) यस्य भावात् आत्मनः जीवितं भवति यस्य चाभावात् मृत इत्युच्यते तद्भवधारणमायुरित्युच्यते । जिसके सद्भाव में जीवन और अभाव में मरण हो, वह आयु है। जिसके होने पर आत्मा का जीवन और जिसके अभाव में आत्मा का मरण कहलाता है। वह भव-धारण में कारण आयु है अर्थात् जो नरकादि भवों में रोककर रखे, उसे आयु कहते हैं । (RT.AT 8/10) कम्मकयमोहवड्ढियसंसारम्हि य अणादिजुत्तेहि । जीवस्स अवद्वाणं करेदि आऊ हलिव्व णरं ॥ आयु कर्म का उदय है सो कर्मकर किया अर अज्ञान, असंयम, मिथ्यात्व वृद्धि को प्राप्त भया ऐसा अनादि संसार ताविषै च्यारि गतिनि मैं जीव अवस्थान को करै है । जैसे काष्ठका खोड़ा अपने छिद्र में जाका पग आया होय ताकि तहाँ ही स्थिति करावै तैसे आयुकर्म जिस गति सम्बन्धी उदय रूप होइ तिस गति विषै जीव की स्थिति करावे हैं । ( गो . क.मू. 11) विशेष- शंका- उस आयुकर्मका अस्तित्व कैसे जाना जाता है ? समाधान - देहकी स्थिति अन्यथा हो नहीं सकती है, इस अन्यथानुपपत्तिसे आयुकर्म का अस्तित्व जाना जाता है । (ध. 6/12-13 ) आयुकर्म के भेद आउगस्स कम्मस्स चत्तारि पयडीओ । णिरयाऊ तिरिक्खाऊ मणुस्साऊ देवाऊ चेदि । कर्म की चार प्रकृतियाँ हैं - नरकायु, तिर्यगायु, मनुष्यायु और देवायु । (ET. 6/48) Jain Education International (32) For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.orgPage Navigation
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