Book Title: Prakruti Parichaya Author(s): Vinod Jain, Anil Jain Publisher: Digambar Sahitya PrakashanPage 50
________________ जिसके उदय से उद्वेग होता है वह भय है। (स.सि. 8/9) यदुदयात् त्रासलक्षण उद्वेग उप्पद्यते तद् भयमुच्यते। जिसके उदय से त्रास लक्षण उद्वेग उत्पन्न होता है वह भय कहलाता है। (त.वृ.श्रु. 8 /9) जुगुप्सा जुगुप्सनं जुगुप्सा। जेसिं कम्माणमुदएण दुगुंछाउप्पज्जदि तेसिं दुगुंछा इदिसण्णा। ग्लानि होने को जुगुप्सा कहते हैं। जिन कर्मो के उदय से ग्लानि उत्पन्न होती है, उनकी 'जुगुप्सा' यह संज्ञा है। (ध. 6/48) जस्स कम्मस्स उदएण दव्व खेत्तकाल मावेसु चिलिसासमुप्पज्जदितं कम्मंदगंछाणाम। जिस कर्म के उदय से द्रव्य, क्षेत्र, काल और भाव में विचिकित्सा उत्पन्न होती है वह जुगुप्सा कर्म है। (ध. 13/361) यतो जुगुप्सासाजुगुप्सा जिसके कारण घृणा आये, वह जुगुप्सा है। (क.प्र./14) यदुदयादात्मदोषसंवरणं परदोषाविष्करणं साजुगुप्सा। जिसके उदय से आत्मदोषों का संवरण और परदोषों का आविष्करण होता है वह जुगुप्सा है। (स.सि. 8/9) कुत्साप्रकारोजुगुप्सा।....आत्मीयदोषसंवरणं जुगुप्सा, परकीयकुलशीलादिदोषाविष्करणावक्षेपणमर्त्सनप्रवणाकुत्सा। कुत्साया ग्लानि को जुगुप्सा कहते हैं। तहाँ अपने दोषों को ढाँकना जुगुप्सा है, तथा दूसरे के कुल-शील आदि में दोष लगाना, आक्षेप करना भर्त्सना करना कुत्सा है। (रा.वा.8/9) स्वदोषगोपनं यस्य जुगुप्सासा जुगुप्सिता। जिसके उदय से अपने दोष छिपाने में प्रवृत्ति हो वह जुगुप्सा है। (ह.पु. 58/236) दर्शनमोहनीय के बन्धयोग्य परिणाम केवलिश्रुतसंघधर्म देवा वर्णवादो दर्शनमोहस्य। (29) Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.orgPage Navigation
1 ... 48 49 50 51 52 53 54 55 56 57 58 59 60 61 62 63 64 65 66 67 68 69 70 71 72 73 74 75 76 77 78 79 80 81 82 83 84 85 86 87 88 89 90 91 92 93 94 95 96 97 98 99 100 101 102 103 104 105 106 107 108 109 110 111 112 113 114 115 116 117 118 119 120 121 122 123 124 125 126 127 128 129 130 131 132 133 134