Book Title: Prakruti Parichaya Author(s): Vinod Jain, Anil Jain Publisher: Digambar Sahitya PrakashanPage 36
________________ दुःखकरणेन्द्रिय विषयानुभवनं कारयति अरतिमोहनीयोदयबलेन तदसातवेदनीयं । दुःख के कारणभूत इंद्रियों के विषयों का अनुभव अरति मोहनीय कर्म के उदय से जो कराता है वह असाता वेदनीय कर्म है । ( गो .क./जी.प्र. 25) सातावेदनीयके बन्ध योग्य परिणाम भूतव्रत्यनुकम्पादानसरागसंयमादियोगः क्षान्तिः शौचमिति सद्वेद्यस्य। भूत- अनुकम्पा, व्रती अनुकम्पा, दान और सराग संयम आदिका योग तथा क्षान्ति और शौच ये साता वेदनीयकर्म के आस्रव हैं । (त.सू. 6 / 12 ) 'आदि' शब्देन संयमासंयमाकामनिर्जराबालतपोऽनुरोधः ।... इति शब्दः प्रकारार्थः। के पुनस्ते प्रकाराः । अर्हत्पूजाकरणतत्परताबालवृद्धतपस्विवैयावृत्त्यादयः । सूत्र में सरागसंयम के आगे दिये गये आदि पदसे संयमासंयम, अकामनिर्जरा और बालतपका ग्रहण होता है। सूत्र में आया हुआ 'इति' शब्द प्रकारवाची है । वे प्रकार ये हैं, - अर्हन्त की पूजा करने में तत्परता तथा बाल और वृद्ध तपस्वियों की वैयावृत्त्य आदि का करने के द्वारा भी साता वेदनीय का आस्रव (स.सि. 6/12) होता है । असातावेदनीय के बन्धयोगय परिणाम दुःखशोकतापाक्रन्दनवधपरिदेवनान्यात्मपरोभयस्थान्यसद्वेद्यस्य अपने में अथवा पर में अथवा दोनों में विद्यमान दुःख, शोक, ताप, आक्रन्दन, वध और परिदेवन ये असातावेदनीय कर्म के आसव हैं । (त.सू. 6 / 11 ) इमे शोकादयः दुःखविकल्पा दुःखविकल्पानामुपलक्षणार्थमुपादीयन्ते, ततोऽन्येषामपि संग्रहो भवति । के पुनस्ते । अशुभप्रयोगपरपरिवादपैशुन्य- अनुकम्पाभाव - परपरितापनाङ्गोपाङ्गच्छेदन - भेदन - ताडनत्रासन - तर्जन- भर्त्सन- तक्षण-विशंसन-बन्धन - रोधन- मर्दन- दमन-वाहनविहेडन-हेपण- कायरौक्ष्य- परनिन्दात्मप्रशंसासंक्लेशप्रादुर्भावनायुर्वमानतानिर्दयत्व - सत्त्वव्यपरोपण - महारम्भपरिग्रह - विश्रम्भोपघातवक्रशीलतापापकर्मजीवित्वाऽनर्थदण्डविषमिश्रण- शरजालपाशवागुरापञ्जरयन्त्रोपायसर्जन- बलाभियोग- शस्त्रप्रदान- पापमिश्रभावाः । एते दुःखादयः परिणामा आत्मपरोभयस्था असद्वेद्यस्यास्रवा वेदितव्याः। उपरोक्त सूत्र में शोकादिका ग्रहण दुःखके विकल्पों के उपलक्षण रूप हैं । Jain Education International (15) For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.orgPage Navigation
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