Book Title: Prakruti Parichaya
Author(s): Vinod Jain, Anil Jain
Publisher: Digambar Sahitya Prakashan

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Page 33
________________ अवधि के दर्शन को अवधिदर्शन कहते हैं । उस अवधिदर्शन को जो आवरण करता है । वह अवधिदर्शनावरणीय कर्म है । (ध. 6/33) रूपिसामान्यग्रहणमवधिदर्शनं तदावृणोतीत्यवधिदर्शनावरणीयम् । ख्मी पदार्थों का सामान्यग्रहण अवधिर्शन है, उसका आवरण करने वाला कर्म अवधिदर्शनावरणीय है । (क. प्र. / 7 ) केवलदर्शनावरणीय केवलमसपत्नं केवलं च तद्दर्शनं च केवलदर्शनम् । तस्स आवरणं केवल दर्शनावरणीयम् । केवल यह नाम प्रतिपक्ष रहित का है । प्रतिपक्ष रहित जो दर्शन होता है, उसे केवल दर्शन कहते हैं । उस केवलदर्शन के आवरण करने वाले कर्म को केवल दर्शनावरणीय कहते हैं । (ध. 6/33) केवलणाणुप्पत्तिकारणसगसंवेयणं केवलदंसणं णाम । तस्य आवारय केवलदंसणावरणीयं । केवलज्ञान की उत्पत्ति के कारण भूत स्वसंवेदनका नाम केवलदर्शन है और उसके आवारक कर्म का नाम केवलदर्शनावरणीय है । (ध. 13 / 355-356) समस्तवस्तुसामान्यग्रहणं केवलदर्शनं तदावृणोतीति केवलदर्शनावरणीयम् । समस्त वस्तुओं का सामान्यग्रहण केवल दर्शन है, उसका आवरण करने वाला कर्म केवल दर्शनावरणीय है । (क. प्र. / 7 ) वेदनीय वेद्यत इति वेदनीयम् अथवा वेदयतीति वेदनीयम् । जीवस्य सुह दुक्खाहवणणिबंधणो पोग्गलक्खंधो मिच्छत्तादिपच्चयवसेण कम्मपज्जयपरिदो जीवसमवेदो वेदणीयमिदि भण्णदे | जो वेदन अर्थात् अनुभव किया जाता है, वह वेदनीय कर्म है । अथवा, जो वेदन कराता है, वह वेदनीय कर्म है । जीव के सुख और दुःख के अनुभवन 1 का कारण, मिथ्यात्व आदि प्रत्ययों के वश से कर्मरूप पर्याय से परिणत और जीव के साथ एक क्षेत्रावगाहरूप सम्बन्ध को प्राप्त पुद्गल - स्कन्ध 'वेदनीय' इस नाम से कहा जाता है । (ध.6 / 10 ) जीवस्स सुह- दुक्खुप्पाययं कम्मं वेयणीयं णाम । Jain Education International (12) For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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