Book Title: Prakruti Parichaya Author(s): Vinod Jain, Anil Jain Publisher: Digambar Sahitya PrakashanPage 30
________________ मारता है, काटता है और बड़बड़ाता है, वह स्त्यानगृद्धि प्रकृति है। (ध.13/354) थीणगिद्धीए तिव्वोदएण उट्ठाविदो विपुणो सोवदि, सुत्तो वि कम्मं कुणदि, सुत्तो वि झंक्खइ, दंते कडकडावेइ। स्त्यानगृद्धि के तीव्र उदय से उठाया गया भी जीव पुनः सो जाता है, सोता हुआ भी कुछ क्रिया करता रहता है, तथा सोते हुए भी बड़बड़ाता है और दांतों को कड़कड़ाता है। (ध. 6/32) यत उत्थापितेऽपिपुनः पुनःस्वपिति निद्रायमाणे चोत्थाय कर्माणि करोति स्वप्नायतेजल्पतिचसा स्त्यानगृद्धिः। जिसके कारण उठा देने पर भी फिर-फिर सो जाये, नींद में उठकर कार्य करे, स्वप्न देखे, बड़बड़ाये, उसे स्त्यानगृद्धि कहते हैं। (क.प्र./9) स्वप्ने यया वीर्यविशेषाविर्भावःसा स्त्यानगृद्दिः। जिसके निमित्त से स्वप्न में वीर्यविशेष का आविर्भाव होता है वह स्त्यानगृद्धि है। __ (स.सि. 8/7) यदुदयाज्जीवो बहुतरं दिवाकृत्यं रौद्र कर्म करोतिसास्त्यानगृद्धिरुच्यते। जिस कर्म के उदय से दिन में करने योग्य अन्य रौद्र कार्यों को रात्रि में कर डालता है वह स्त्यानगृद्धि निद्रा है। (त.वृ. श्रु. 8/7) निद्रा णिद्दाए तिव्वोदएण अप्पकालं सुवइ, उट्ठाविज्जतो लहुं उद्वेदि, अप्पसद्देण विचेअइ। निन्द्रा प्रकृति के तीव्र उदय से जीव अल्पकाल सोता है, उठाये जाने पर जल्दी उठ बैठता है और अल्प शब्द के द्वारा भी सचेत हो जाता है। (ध. 6/32) जिस्से पयडीए उदएण अद्धजगंतओ सोवदि, धूलीए भरिया इव लोयणा होति, गुरुव भारेणोठ्ठद्धं व सिरमइभारियं होइसा णिद्दा णाम। जिस प्रकृति के उदय से आधा जगता हुआ सोता है, धूलि से भरे हुए के समान नेत्र हो जाते हैं और गुरुभार को उठाये हुए के समान सिर अतिभारी हो जाता है वह निद्रा प्रकृति है। (ध. 13/354) यतोगच्छतःस्थानं तिष्ठत उपवेशनमुपविशतश्शयनं च भवतिसा निद्रा। (9) Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.orgPage Navigation
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