Book Title: Prakruti Parichaya Author(s): Vinod Jain, Anil Jain Publisher: Digambar Sahitya PrakashanPage 28
________________ अंतरंग पदार्थ को विषय करने वाले उपयोग का प्रतिबंधक दर्शनावरण कर्म (ध. 1/383) है । दर्शनं सामान्यग्रहणमावृणोतीति दर्शनावरणीयं प्रतिहारवत् । प्रतिहार की तरह जो आत्मा के सामान्यग्रहण रूप दर्शन गुणको रोकता है, वह दर्शनावरणीय है । (क. प्र. / 3) दर्शनमावृणोतीति दर्शनावरणीयं । तस्य का प्रकृतिः ? दर्शनप्रच्छानता । किंवत् ? राजद्वार प्रतिनियुक्त प्रतीहारवत् । I दर्शन को आवृत करता है वह दर्शनावरणीय है । जैसे राजद्वार पर बैठा द्वारपाल राजा को नहीं देखने देता, उसी प्रकार दर्शनावरण दर्शनगुण को आच्छादित करता है । (गो.का./जी. प्र. 20) दर्शनावरणीय कर्म के भेद दंसणावरणीयस्स कम्मस्स णव पयडीओ। णिद्दाणिद्दा पयलापयला थी गिद्धी णिद्दा पयलाय, चक्खुदंसणावरणीयं अचक्खुदंसणावरणीयं ओहिदंसणावरणीयं केवलदंसणावरणीयं चेदि । दर्शनावरणीय कर्म की नौ प्रकृतियाँ हैं - निद्रानिद्रा, प्रचलाप्रचला, स्त्यानगृद्धि, निद्रा और प्रचला चक्षुदर्शनावरणीय, अचक्षुदर्शनावरणीय, अवधिदर्शनावरणीय और केवल दर्शनावरणीय है । (ET 6/31) निद्रानिद्रा जिससे पयडीए उदएण अइणिब्भरं सोवदि, अण्णेहि उट्ठाविज्जंतो विण उट्ठइ सा णिद्दाणिद्दा णाम । जिस प्रकृति के उदय से अतिनिर्भर होकर सोता है और दूसरों के द्वारा उठाये जाने पर भी नहीं उठता है वह निद्रानिद्रा प्रकृति है । (ध. 13 / 354) णिद्दाणिद्दाए तिव्वोदएण रुक्खग्गे विसमभूमीए जत्थ वा तत्थ वा देसे घोरंतो अघोरतो वा णिब्भरं सुवदि । निद्रानिद्रा प्रकृति के तीव्र उदय से जीव वृक्ष के शिखर पर, विषम भूमि पर, अथवा जिस किसी प्रदेश पर घुरघुराता हुआ या नहीं घुरघुराता हुआ निर्भर अर्थात् गाढ़ निद्रा में सोता है । (ध. 6 / 31 ) उत्थापितेऽपि लोचनमुद्घाटयितुं न शक्नोति यतस्सा निद्रानिद्रा जिसके कारण उठाये जाने (जगाये जाने) पर भी आँखें न खुल सकें, उसे Jain Education International (7) For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.orgPage Navigation
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