Book Title: Prakruti Parichaya
Author(s): Vinod Jain, Anil Jain
Publisher: Digambar Sahitya Prakashan

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Page 23
________________ अंतराय - ये आठों ही कर्मों की मूल प्रकृतियाँ हैं । ज्ञानावरणीय कर्म णामवबोहो अवगमो परिच्छेदो इदि एयट्ठो । तमावारेदि त्ति णाणावरणीयं कम्मं । ज्ञान, अवबोध, अवगम और परिच्छेद, ये सब एकार्थ वाचक नाम हैं उस ज्ञान को जो आवरण करता है, वह ज्ञानावरणीय कर्म है । (ध. 6/6) णाणावारओ पोम्गलक्खंधो पवाहसरूवेण अणाइबंधणबद्धो णाणावरणीयमिदि भण्णदे | प्रवाहस्वरूप से अनादि-बंधन-बद्ध ज्ञान का आवरण करने वाला पुद्गलस्कन्ध 'ज्ञानावरणीय कर्म' कहलाता है । (ध. 6/9) बहिरङ्गार्थ विषयोपयोगप्रतिबन्धकं ज्ञानावरणमिति । बहिरंग पदार्थ को विषय करने वाले उपयोग का प्रतिबन्धक ज्ञानावरण कर्म है। (ध. 1 / 383 ) तत्रात्मनो ज्ञानं विशेषग्रहणमावृणोतीति ज्ञानावरणीयं श्लक्ष्णकाण्डपटवत् । पतले रेशमी वस्त्र की तरह जो आत्मा के विशेष ग्रहण रूप ज्ञानगुण को ढँकता है, वह ज्ञानावरणीय है । (क. प्र. / 2) (ध. 6 / 6-14) विशेष- शंका-जीवद्रव्यसे पृथग्भूत पुद्गलद्रव्यके द्वारा जीवका लक्षणभूत ज्ञान कैसे विनष्ट किया जाता है ? समाधान - यह कोई दोष नहीं है, क्योंकि, जीवद्रव्यसे पृथग्भूत, घट, पट, स्तम्भ और अंधकार आदिक पदार्थ जीवके लक्षणस्वरूप ज्ञान के विनाशक पाये जाते हैं । (ध. 6/8) ज्ञानावरणीय के भेद णाणावरणीयस्य कम्मस्स पंच पयडीओ । आभिणिबोहियणाणावरणीयं सुदणाणावरणीयं ओहिणाणावरणीयं मणपंज्जवणाणावरणीयं केवलणाणावरणीयं चेदि । ज्ञानावरणीय कर्म की पांच प्रकृतियाँ हैं । आभिनिबोधिकज्ञानावरणीय, श्रुतज्ञानावरणीय, अवधिज्ञानावरणीय, मनः पर्ययज्ञानावरणीय और केवलज्ञानावरणीय | (ET. 13/209) Jain Education International (2) For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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