Book Title: Prachin evam Madhyakalin Malva me Jain Dharm Ek Adhyayan
Author(s): Tejsinh Gaud
Publisher: Rajendrasuri Jain Granthmala
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गई। वर्धमान का विवाह यशोदा नामक राजकुमारी से हुआ और कुछ समय उपरांत उससे एक कन्या भी हुई जिसका नाम अणंज्जा था। अणंज्जा का विवाह जमालि नामक क्षत्रिय से हुआ। कालान्तर में जमालि वर्धमान महावीर के उपदेश सुनकर उनका प्रथम शिष्य बन गया और बाद में जैनधर्म की प्रथम शाखा का नेता बना।
तीस वर्ष की आयु तक वर्धमान ने वैभव का जीवन व्यतीत किया। किन्तु वे अधिकाधिक चिंतनशील और निवृत्ति मार्गी होते गये। अंत में अपने ज्येष्ठ भ्राता नन्दिवर्धन की आज्ञा लेकर उन्होंने तीस वर्ष की आयु में अपना गृह त्याग दिया और सत्य की खोज में सन्यासी हो गये।
निर्लिप्त, मौन और शांत रहकर वर्धमान ने बारह वर्ष तक कठोर तपस्या की। तपस्वी जीवन के तेरहवें वर्ष में वैशाख मास की दसमी के दिन जंभिक ग्राम में बाहर पार्श्वनाथ शैल शिखर के पास ऋजुबालिका नदी के तट पर शाल वृक्ष के नीचे वर्धमान को 'कैवल्य' ज्ञान की प्राप्ति हुई। कैवल्य का अर्थ है, निर्मल पवित्र ज्ञान। जिसके लिये बाह्य और आभ्यन्तर विविध प्रकार के तप तपे जाते. हैं। वह लक्ष्यभूत केवल ज्ञान है। जैसे 'केवल अन्न खाता है यहां केवल शब्द : असहाय अर्थ में अर्थात् शाक आदि रहित अन्न खाता है उसी तरह केवल अर्थात् क्षायोपशमिक आदि ज्ञानों की सहायता से रहित असहाय केवल ज्ञान है।' केवल का व्युत्पत्तिलभ्य अर्थ- अर्थीजन जिसके लिये बाह्य और आभ्यन्तर तप के द्वारा मार्ग का केवल अर्थात् सेवन करते हैं वह कैवल्य ज्ञान कहलाता है। अथवा केवल शब्द असहायवाची है, इसलिये असहाय ज्ञान को केवल ज्ञान कहते हैं। इस ज्ञान की उपलब्धि तथा सांसारिक सुख-दुःख से अंतिम मुक्ति प्राप्त होने से वर्धमान अब अर्हत, केवलिन और निग्रंथ कहे जाने लगे। अपनी इन्द्रियों पर विजय प्राप्त करने के कारण वे 'जिन' कहलाये और तपस्वी जीवन में अतुल पराक्रम और साहस प्रकट करने के कारण ‘महावीर' कहलाये।
कैवल्य ज्ञान की प्राप्ति के पश्चात् महावीर तीस वर्ष तक एक स्थान से दूसरे स्थान भ्रमण करते रहे और कौसल, मगध, वैशाली तथा अन्य प्रदेशों में निरन्तर अपने उपदेशों और सिद्धान्तों का प्रचार करते रहे। अन्त में ईस्वी पूर्व 527 में आधुनिक पटना जिले में पावापुरी में मल्लराज हस्तिपाल के राजमहल में 72 वर्ष की आयु में महावीर का देहान्त हुआ।
यदि हम यह भी मानलें कि महावीर संस्थापक नहीं है तो भी वे जैनधर्म के प्रवर्तक तो हैं। यह तो स्वीकार करना ही पड़ेगा कि महावीर ने जैनधर्म को संवार कर एक नया रूप दिया तथा सर्वसाधारण में इसका प्रचार एवं प्रसार
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