Book Title: Prachin evam Madhyakalin Malva me Jain Dharm Ek Adhyayan
Author(s): Tejsinh Gaud
Publisher: Rajendrasuri Jain Granthmala
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अध्याय - 10 जैनधर्म को मालवा की देन
जैन धर्म को मालवा की देन : किंवदन्तियों एवं परम्पराओं के आधार पर मालवा में जैनधर्म का प्रादुर्भाव महावीरस्वामी के समय से ही माना जाता है। मौर्यकालीन मालवा में जैनधर्म एक विशेष अवस्था में मिलता है। आचार्य भद्रबाहु : सर्वव्यापी आचार्य हो गये हैं। उनके अनुयायी के रूप में हम राजा चन्द्रगुप्ति का उल्लेख पाते हैं विद्वानों ने जिसे चन्द्रगुप्त मौर्य माना है। एक. और मौर्य सम्राट सम्प्रति का जैनधर्म में वही स्थान है जो बौद्धधर्म में अशोक का था। कहते हैं कि सम्प्रति ने जैनधर्म की उन्नति एवं प्रचार-प्रसार के लिये पर्याप्त प्रयास किये थे। जैसा गार्गीसंहिता के युग-पुराण से प्रकट है, उसने उस प्रचार में बल और हिंसा का भी उपयोग किया जिससे रक्षा ग्रीक राजा देमित्रियस के सामयिक-आक्रमण द्वारा हुई और परिणामतः उसका नाम 'धर्ममीतः पड़ा। आगे आचार्य कालक का भी प्रभाव बढ़ा उन्होंने अपने प्रभाव से शकों को मालवा के शासक गर्दभिल्ल का दर्पचूर्ण करने के लिये आमंत्रित किया गया और उस कार्य में वे सफल भी हुए। आर्यरक्षितसूरि मालवा में ही जन्में, मालवा ही उनकी कर्मभूमि रहा। ये "युग प्रधान आचार्य" हो चुके हैं। इन्होंने आगमों को चार भागों में विभक्त कर महान् कार्य किया। गुप्तकाल में मालवा में प्रथम बार जैनधर्म से सम्बन्धित पुरातात्विक अवशेष तथा अभिलेख मिलते लगते हैं। उसी काल सप्रसिद्ध जैनाचार्य हए हैं जिन्होंने उच्चकोटि के साहित्य का सृजन किया है। राजपूत काल जैनधर्म की चहुंमुखी उन्नति का युग सिद्ध हुआ। इस युग में जहां अनेक जैनाचार्यों ने साहित्य के विभिन्न अंगों से सम्बन्धित ग्रन्थों की रचना की। वहीं सम्पूर्ण मालवा में जैन मंदिरों के निर्माण भी हुए ऐसा उल्लेख तथा अवशेष मिलते हैं।
जैनधर्म में भेद उत्पन्न होने के तारतम्य में उज्जैन का भी उल्लेख हुआ है जिससे मालवा को जैन इतिहास में एक महत्त्वपूर्ण स्थान प्राप्त है। मालवा में दिगम्बर भट्टारकों की गादियां भी रही है। उज्जैन की गादी की पट्टावली गुप्तकाल से उपलब्ध होने लगती है जिससे जैनधर्म के पर्याप्त विकसित होने का संकेत 1 देखिये विकास पहला लेख [154
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