Book Title: Prachin evam Madhyakalin Malva me Jain Dharm Ek Adhyayan
Author(s): Tejsinh Gaud
Publisher: Rajendrasuri Jain Granthmala

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Page 162
________________ पर ": किया था। उसके बाद सकलविधि विधान नाम का काव्य ग्रन्थ बनाया, जिससे पूर्ववर्ती और समकालीन अनेक विद्वानों का उल्लेख करते हुए प्रभाचन्द्र का नामोल्लेख किया है, परन्तु उसमें उनकी रचनाओं का कोई उल्लेख नहीं है। इससे स्पष्ट है कि प्रमेयकमलमार्तण्ड की रचना सं.1100 के बाद किसी समय हुई है और न्याय कुमुदचन्द्र सं.1112 के बाद की रचना है, क्योंकि जयसिंह राजा भोज के (सं.1110) बाद किसी समय उत्तराधिकारी हुआ है। न्याय कुमुदचन्द्र जयसिंह के राजकाल में रचा गया है। इससे प्रभाचन्द्र का समय विक्रम की 11वीं शताब्दी का उत्तरार्द्ध 12वीं शताब्दी का पूर्वार्ध होना चाहिये। 39 ___(19) आशाधर : पंडित आशाधर संस्कृत साहित्य के अपारदर्शी विद्वान् थे। ये मांडलगढ़ के मूल निवासी थे किन्तु मेवाड़ पर मुसलमान बादशाह शहाबुद्दीन गौरी के आक्रमणों से त्रस्त होकर मालवा की राजधानी धारानगरी में अपने स्वयं एवं परिवार की रक्षा के निमित्त अन्य लोगों के साथ आकर बस गये थे। पं.आशाधर बघेरवाल जाति के श्रावक थे। इनके पिता का नाम सल्लक्षण एवं माता का नाम श्रीरत्नी था। सरस्वती नामक इनकी पत्नी थी जो बहुत सुशील एवं सुशिक्षिता थी। इनके एक पुत्र भी था, जिसका नाम छाहड़ था। इनका जन्म किस संवत मैं हुआ यह तो निश्चित रूप से नहीं कहा जा सकता किन्तु ऐतिहासिक तथ्यों के आधार पर इनका जन्म वि.सं.1234-35 के लगभग अनुमानित किया जाता है। धारानगरी उस समय साहित्य एवं संस्कृति का केन्द्र थी इसीलिये उन्होंने भी वहीं व्याकरण एवं न्यायशास्त्र का गम्भीर अध्ययन किया। धरानगरी के साहित्य एवं संस्कृति का परिज्ञान एवं नलकच्छपुर (नालछा) में साधु जीवन प्राप्त हुआ था। नालछा का नेमिनाथ. चैत्यालय उनकी साहित्यिक गतिविधियों को केन्द्र बन गया। वे लगभग 35 वर्ष तक नालछा में ही रहे और वही एक निष्ठा से साहित्य सृजन करते रहे।" पंडित आशाधर बहुश्रुत और बहुमुखी प्रतिभा के विद्वान हुए। काव्य अलंकार, व्याकरण, कोश दर्शन, धर्म और वैद्यक आदि अनेक विषयों पर उन्होंने ग्रन्थ लिखे। वे धर्म के बड़े उदार थे। 42 - इनमें जातीयगत संकीर्णता का अभाव था। अतः बघेरवाल जाति में उत्पन्न होने पर भी समूचे जैनधर्म के उत्थान में अपने जीवन को अर्पण कर दिया। इनका कुल राज-सम्मान प्राप्त था। अतः ये चाहते तो किसी अच्च पद पर आसीन होकर ऐश-आराम की जिन्दगी गुजारते किन्तु इन्होंने उस समय फैले हुए अज्ञान को दूर करने के लिये नालछा के नेमि चैत्यालय में एक निष्ठता के साथ 149 Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org

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