Book Title: Prachin evam Madhyakalin Malva me Jain Dharm Ek Adhyayan
Author(s): Tejsinh Gaud
Publisher: Rajendrasuri Jain Granthmala

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Page 148
________________ अपने गुरु के पास जो दृष्टिवाद था उसका भी आर्यरक्षित ने समग्र अध्ययन किया। इतने से आर्यरक्षित की ज्ञान पिपासा शान्त नहीं हई और वे अपने गुरुदेव की आज्ञा से गीतार्थ मुनियों के साथ उज्जयिनी पहुंचे। वहां आचार्य भद्रगुप्तसूरि की सेवा में उनके स्वर्गगमन तक उनके द्वारा आदेश दिये गये नियमों का पालन करते हुए आर्य वज्रस्वामी के समीप पहुंचे एवं उनके अन्तेवासी बनकर विद्याध्ययन करने लगे। . इधर माँ रूद्रसोमा ने पुत्र के वियोग में अत्यधिक सन्तप्त हो आर्यरक्षित को बुलाने के लिये अपने द्वितीय पुत्र फल्गुरक्षित को उनके समीप भेजा।। फल्गुरक्षित ने अपनी माता का सन्देश सुनाते हुए आर्यरक्षित से कहा, 'हे भाई! आओ, पूरा परिवार तुम्हें देखने को उत्सुक है।" "यदि यह सत्य है, फल्गुरक्षित। तो सर्वप्रथम तुम भी दीक्षा लेकर विद्याध्ययन करो। सम्पूर्ण विद्याओं के साथ समग्र जैनदर्शन का अध्ययन कर हम दोनों एक साथ ही पूरे परिवार एवं माताजी से मिलने चलेंगे।" आर्यरक्षित ने प्रसन्न होकर फलारक्षित से कहा। फल्गुरक्षित ने विचार कर अपने अग्रज की बात मान ली एवं दीक्षा लेकर उन्हीं के समीप विध्ययन करने लगे। एक दिन अध्ययन करते करते विचारमग्न हो सोचने लगा एवं गुरु वज्रस्वामी से उसने पूछा- "गुरुदेव! दशमपूर्व की यविकाओं का तो मैं अध्ययन प्रायः समाप्त कर चुका हूं अब कितना अध्ययन और शेष है?" - कुछ दिन और गहन अध्ययन में व्यतीत होने के पश्चात् पुनः आर्यरक्षित ने गुरुदेव से वही प्रश्न किया। "आर्यरक्षित। अभी तुमने मेरू में सरसों जितना और सागर में बिन्दु जितना अध्ययन किया है। इस प्रकार अपार एवं गहनतम विषय में से अभी एक ही चरण लिया है, अभी अनन्त अनन्त शेष है।" वज्रस्वामी का उक्त कथन सुनकर आर्यरक्षित नतसिर हो पुनः ज्ञान की साधना एवं तत्त्व की आराधना में लग गये। पुनः एक दिन अवसर पाकर आर्यरक्षित ने वज्रस्वामी से निवेदन किया, "भगवन! मुझे देखने के लिये मेरे सम्बन्धी उत्सुक हो रहे हैं। यह देखिये फल्गुरक्षित, मेरा अनुज मुझे बुलाने आया है। कृपया मुझे एक बार जाने की अनुमति दीजिये। मैं तत्काल ही वहां से पुनः लौटकर अपने अध्ययन में रत हो जाऊंगा। वज्रस्वामी ने आदेश देते हुए कहा- "वत्स! यदि तुम जाना ही चाहते हो तो जाओ। तुम्हें आशीर्वाद देता हूं कि अधीन ज्ञान तुम्हारी आत्मा के लिये कल्याणकारी हो।" [135] 135 Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org

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