Book Title: Prachin evam Madhyakalin Malva me Jain Dharm Ek Adhyayan
Author(s): Tejsinh Gaud
Publisher: Rajendrasuri Jain Granthmala
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रथावर्त पर्वत विदिशा के निकट था। इसका नाम गजाग्रद गिरि और इन्द्रपद भी है।
आचार्य वज्र के जीवन से सम्बन्धित निम्नांकित नगर बताये जाते हैं:तुम्बवन, उज्जयिनी, पाटलिपुत्र, पुरिका, हिमवत, हुताशनवन एवं रथावर्त।”
आर्य वज्रस्वामी की दीक्षा वीर निर्वाण सं.490 में युगप्रधान पद प्राप्ति वी.नि.सं.534 में तथा निर्वाण 570 में हआ।18
(7) आचार्य कालक: आचार्य कालक एक राजवंश में जन्म थे। कालान्तर में वे जैन मुनि हो गये। एक घटना से उनका महत्त्व विशेष बढ़ गया है। उनकी साध्वी बहिन सरस्वती पर आसक्त होकर उज्जयिनी के. राजा गर्दभिल्ल ने उसको अपने अन्तःपुर में डाल दिया। सूरि कालक ने बहुत अनुनय विनय की परन्तु कामांध राजा गर्दभिल्ल नहीं माना। क्रुद्ध होकर कालकाचार्य ने राजा गर्दभिल्ल को उन्मूल करने का संकल्प किया और अवन्तिदेश का परित्याग करके सिंधुदेश (शककुल) को प्रस्थान किया। वहां के 96 साहि (सामन्त) से वहां का नरेश (साहानुसाहि) अप्रसन्न था। आचार्य कालक की सलाह लेकर वे 96 साहि. "हिन्दुक देश" को चले दिये। उन्होंने पहिले सौराष्ट्र जीता, फिर उज्जैन आकर गर्दभिल्ल राजा पर विजय प्राप्त की। कालक की सहायता से उज्जैन में शकों का राज्य प्रारम्भ हुआ। कालान्तर में प्रजा शक राज्य से तंग आ गई। तब गर्दभिल्ल के पुत्र विक्रमादित्य ने सेना एकत्र करके शकों को युद्ध में पराजित किया। इस कथानक से जैन आचार्य कालक का सर्वव्यापी प्रभाव परिलक्षित होता है।
(8) सिद्धसेन दिवाकर : पं.सुखलाल ने श्री सिद्धसेन दिवाकर के विषय में इस प्रकार लिखा है- "जहां तक मैं जान पाया हूं, जैन परम्परा में तर्कविद्या का और तर्कप्रधान संस्कृत वांगमय का आदि प्रणेता है सिद्धसेन दिवाकर।"
सिद्धसेन का सम्बन्ध, उनके जीवन कथानकों के अनुसार उज्जयिनी और उसके अधिपति विक्रम के साथ अवश्य रहा है, पर यह विक्रम कौनसा? यह एक विचारणीय प्रश्न है। अभी तक के निश्चित प्रमाणों से जो सिद्धसेन का समय विक्रम की पांचवी और छठी शताब्दी का मध्य जान पड़ता है उसे देखते हुए अधिक संभव यह है कि वह राजा चन्द्रगुप्त द्वितीय या उसका पौत्र स्कन्दगुप्त रहा होगा जो विक्रमादित्य रूप से प्रसिद्ध हुए। सभी नये पुराने उल्लेख यह कहते हैं कि सिद्धसेन जन्म से ब्राह्मण थे।
__सिद्धसेन ने गद्य में कुछ लिखा हो तो पता नहीं है। उन्होंने संस्कृत में बत्तीसिया रची है जिनमें से इक्कीस अभी लभ्य है। उनका प्राकृत में रचा, "सम्मतिप्रकरण" जैनदृष्टि और मन्तव्यों को तर्क शैली से स्पष्ट करने तथा स्थापित करनेवाला जैन वाङमय में सर्वप्रथम ग्रन्थ है जिसका आश्रय उत्तरवर्ती
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