Book Title: Prachin evam Madhyakalin Malva me Jain Dharm Ek Adhyayan
Author(s): Tejsinh Gaud
Publisher: Rajendrasuri Jain Granthmala
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उन्हें में मानना उचित नहीं जान पड़ता है | 28
देवसेन तथा पद्मनंदि कुंदकुंद अन्वय के थे। उनका काल दशवी शताब्दी विक्रमी के लगभग था क्योंकि दर्शनसार की पुष्पिका में उन्होंने लिखा है कि धारा नगरी में निवास करते हुए पार्श्वनाथ के मंदिर में मार्ग सुदि 10 वि.सं. 990 को उन्होंने अपना उक्त ग्रन्थ समाप्त किया। आराधनासार और तत्वसार भी उन्होंने ही लिखे। इन्होंने और भी अन्य ग्रन्थों की रचना की है जिनका परिचय यथास्थान दिया जायेगा।
(13) आचार्य महासेन : आचार्य महासेन लाइबागड़ के पूर्णचन्द्र थे । आचार्य जयसेन के प्रशिष्य और गुणाकरसेन सूरि के शिष्य थे। सम्भव हैं। आचार्य महासेन के गुरुजनों के विहार से धारानगरी पवित्र हुई हो । महासेन सिद्धान्तज्ञवादी वाग्मी, कवि और शब्द ब्रह्म के मिश्रित धाम थे । यशस्वियों द्वारा सम्मान्य सज्जनों में अग्रणी और पापरहित थे। यह परमार वंशी राजा मुंज द्वारा पूजित थे। सम्यकदर्शन, ज्ञान चारित्र और तप की सीमा स्वरूप थे और भव्यरूपी कमलों को विकसित करने वाले बान्धक सूर्य थे। तथा सिन्धुराज के महामात्य श्रीपर्पट के द्वारा जिनके चरण कमल पूजे जाते थे और उन्हीं के अनुरोधवश 'प्रद्युम्नचरित' की रचना विक्रम की 11वीं शताब्दी के मध्यभाग में हुई है।
महासेनसूरि का समय विक्रम की 11वीं शताब्दी का मध्यभाग है, क्योंकि धाराधिप मुंज के दो दान पत्र वि. सं. 1031 और वि. सं. 1036 के प्राप्त हुए है। आचार्य अमितगति द्वितीय ने इन्हीं मुंजदेव के राज्यकाल में वि. सं. 1050 पौष शुक्ला मंचमी के दिन 'सुभाषितरत्नसन्दोह' की रचना की थी। जैसा कि उस ग्रन्थ के अंतिम प्रशस्तिपद से प्रकट होता है।
इससे मुंज का राज्य सं. 1031 से 1050 तक तो सुनिश्चित ही है और कितने समय तक रहा यह नहीं कहा जा सकता। श्री नंदलाल लोढ़ा ने मुंज का समय वि. सं. 1030 से 1054 तक का बताया है। 30 पर यह ज्ञात होता है कि तेलपदेव ने सं. 1050 या 1054 में मध्यवर्ती समय में मुंज का वध किया था । चूंकि महासेन मुंज द्वारा पूजित थे और वे संभवतः वहां ही निवास करते थे अतएव उक्त ग्रन्थ उन्हीं के राज्यकाल में रचा गया।
मुंज की मृत्यु के बाद कुछ समय राज्य शासन राजा सिंधुल ने, जो कि सुप्रसिद्ध राजा भोज के पिता थे, किया। उनकी मृत्यु गुजरात नरेश सोलंकी राजा चामुण्डराय के साथ युद्ध में वि. सं. 1066 से कुछ पूर्व हुई थी। महासेन ने अपनी कृति में कोई रचना काल नहीं दिया और न उनकी अन्य रचनाओं का ही पता चलता है।
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