Book Title: Prachin evam Madhyakalin Malva me Jain Dharm Ek Adhyayan
Author(s): Tejsinh Gaud
Publisher: Rajendrasuri Jain Granthmala

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Page 146
________________ वास्तविकता से शिष्यों को अवगत करवाते हुए कहा कि समस्त दस पूर्व का अभ्यास करके कोई व्यक्ति मेरे पास आ रहा है। जब ऐसा गुरु श्री भद्रगुप्ताचार्य बोल रहे थे, तभी वज्रस्वामी उनको प्रणाम कर खड़े हो गये थे। वज्रस्वामी की प्रतिभा और ललाट देखकर श्री भद्रगुप्ताचार्य ने उसे समस्त श्रुत का ज्ञान कराकर अपने गुरु के पास भेज दिया। श्री भद्रगुप्ताचार्य के अंत समय की आराधना आर्यरक्षित सरि ने करवाई थी। विशेष ज्ञानार्जन के लिये जहाँ आर्यरक्षितसूरि तोशलीपुत्र आचार्य की आज्ञा से वज्रस्वामी के पास आये वहीं वज्रस्वामी के विद्या गुरु श्री भद्रगुप्ताचार्य ने भला एवं योग्य व्यक्ति जानकर आर्यरक्षितसूरि से कहा कि आर्यरक्षित मेरे इस अंतिम समय में तू ही मेरा सहायक हो। आर्यरक्षितसूरि ने यह स्वीकार किया और ऐसी सर उपासना की कि श्री भद्रगुप्ताचार्य को प्रशंसा करना पड़ी।' __(5) श्रीआर्यरक्षितसूरि : नंदीसूत्रसवृत्ति से यह प्रतीत होता है कि वीर निर्वाण संवत् 584 ई.सन् 57 में दशपुर में आर्यरक्षितसरि नामक एक सुप्रसिद्ध जैनाचार्य हो गये हैं, जो अपने समय के उद्भट विद्वान, सकल शास्त्र पारंगत एवं आध्यात्मिक तत्त्ववेत्ता थे। यही नहीं, यहां तक इनके वर्णन में उल्लेख किया गया है कि ये इतने विद्वान् थे कि अन्य कई गणों के ज्ञान पिपासु जैनसाधु आपके शिष्य रहकर ज्ञान प्राप्त करते थे। उस समय आर्यरक्षितसूरि का शिष्य होना महान् भाग्यशाली होने का सूचक माना जाता था। फलतः आपके शिष्यों एवं विद्यार्थियों की संख्या का कोई पार ही नहीं था। आर्यरक्षितसरि का दशपुर से घनिष्टतम सम्बन्ध था। दशपुर में जब उदयन राज कर रहा था, उस समय उसके एक पुरोहित था जिसका नाम सोमदेव था। सोमदेव की रूद्रसोमा नाम की पत्नी थी इनके दो पुत्र थे- आर्यरक्षित एवं फल्गुरक्षित। प्रासंगिक कथानक का उल्लेख करते हुए नंदीसूत्र में इस प्रकार कहा गया है:.. "आस्ते पुरं दशपुर, सारं दशदिशामिव। सोमदेवों द्विजस्तत्र, रूद्रसोमा च तत्प्रिया।। - तस्यार्यरक्षितः सूनुरनूजः फल्गुरक्षितः।। पुरोहित सोमदेव ने जो स्वयं उच्चकोटि के विद्वान थे अपने ज्येष्ठ पुत्र आर्यरक्षित को अपनी अध्ययन की हुई समस्त विद्याओं का अध्ययन कराया। किन्तु कुशाग्र बुद्धि मेधावी आर्यरक्षित इतने ही से सन्तुष्ट नहीं हुए और अधिक विद्याययन के लिये पाटलिपुत्र चले गये। वहां उन्होंने लगन एवं तन्मयता के साथ वेद उपनिषद् आदि चतुर्दश विद्याओं का अध्ययन किया। जब विद्याध्ययन कर | 133 Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org

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