Book Title: Prachin evam Madhyakalin Malva me Jain Dharm Ek Adhyayan
Author(s): Tejsinh Gaud
Publisher: Rajendrasuri Jain Granthmala
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दोनों आचार्यों से वह भद्रबाहु पृथक् थे जिन्होंने उत्तराधिकार के विषय में धर्मशास्त्र (कानून) का ग्रन्थ भद्रबाहुसंहिता लिखा ।
आचार्य भद्रबाहु भगवान महावीर के बाद छठवें थेर माने जाते हैं। 'दसाउ' और "दस निर्ज्जुति" के अतिरिक्त उनके कल्पसूत्र का जैन धार्मिक साहित्य में बहुत महत्त्व है।
भद्रबाहु के चले जाने के अनंतर ही श्वेताम्बर और दिगम्बर सम्प्रदाय अलग-अलग हुए हैं। इसलिये जैन साहित्य में भद्रबाहु और उज्जैन का स्थान बहुत ऊंचा है।
(3) श्रीआर्य सुहस्तिसूरि : श्रीआर्य सुहस्तिसूरि के जीवन का विवरण इस प्रकार मिलता है:
गृहस्थाश्रम 30 वर्ष, चारित्रपर्याय 70 वर्ष जिसमें सामान्य व्रत पर्याय 24 वर्ष, युगप्रधान 46 वर्ष, सुर्वायु 100 वर्ष स्वर्ग गमन म. सं. 291 अर्थात् ई.पू.236 गौत्र वाशिष्ट ।
स्थूलभद्र के द्वितीय पट्टधर आर्य सुहस्तिसूरि 30 वर्ष की वय में दीक्षित होकर 24 वर्ष तक सामान्य व्रती रहे। अनन्तर 46 वर्ष तक युगप्रधान पद भोगा और सौ वर्ष की आयुष्य पूरा करके आर्य सुहस्ति जिन निर्वाण से 343 वर्ष में स्वर्गवासी हुए । '
दोनों उल्लेख में शेष सब बातें समान है किन्तु आर्य सुहस्तिसूरि के स्वर्गारोहण की तिथि में अन्तर है यह अन्तर क्यों है यह कहना कठिन है।
उज्जैन में "जीवंत स्वामी" की रथ यात्रा के समय उज्जैन के तत्कालीन सम्राट सम्प्रति ने सुहस्तिजी को देखा और देखकर स्वामीजी के विषय में वह सोचने लगा। जब बार-बार ऐसा विचार आने लगा, तब राजा सम्प्रत को मूर्च्छा आ गई। राजा को जब चेतना आई, तब उसे स्मरण आया कि ये पूर्व जन्म के उपकारी मुनि हैं। तब उसने मुनिजी के चरणों में अपना मस्तक झुकाया । मुनिजी और राजा सम्प्रति में अनेक विषयों पर वार्तालाप हुआ। परिणामतः राजा सम्प्रति जैनधर्म में दीक्षित हुआ और जैनधर्म की उन्नति के लिये उसने अनेक कार्य किये।"
(4) श्री भद्रगुप्ताचार्य - श्री भद्रगुप्ताचार्य श्री वज्रस्वामी के विद्या गुरु थे। जहां सिंहगिरिं ने वज्रस्वामी को पूरी पूरी शिक्षा दी, वहीं यह भी कहा कि उज्जयिनी नगरी में जाकर श्री भद्रगुप्ताचार्य के पास शेष श्रुतों का अभ्यास करें। श्री भद्रगुप्ताचार्य को एक बार स्वप्न आया कि कोई अतिथि आकर उनका दूध से भरा पात्र खाली कर गया है, अर्थात् दूध पी गया है। इस स्वप्न की
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