Book Title: Prachin evam Madhyakalin Malva me Jain Dharm Ek Adhyayan
Author(s): Tejsinh Gaud
Publisher: Rajendrasuri Jain Granthmala
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वार्तालाप किया गयाः
(1) महाव्रत (2) वस्त्रवेष (3) एककी जय (4) स्नेहपाश मुक्ति (5) तृष्णलता छेद (6) कषायाग्नि शमन (7) मनोवैशदमन (8) सन्मार्ग (9) द्वीप (10) शरीर का सच्चा नाविक (11) सर्वज्ञ प्रकाश और (12) निर्वाण सुख।।
इस विवाद का परिणाम यह निकला कि तीर्थंकरों का एक ही मार्ग है। गणधर श्री केशी स्वामी ने पांच महाव्रत स्वीकार कर भगवान महावीर स्वामी के शासन में प्रवेश लिया और उनके द्वारा श्रमण संघ 'पार्श्वपत्य' प्रकट हुआ।
- इस श्रमण संघ के निग्रंथ चातुर्यामी, पार्श्वनाथ संतानीय, दिवंदनीक, कंवलागच्छ आदि अनेक नामी से तथा माथुरगच्छ, कोरंटगच्छ, कुकुद शाखा, भिन्नमाला शाखा, चन्द्रावती शाखा, मेड़ता शाखा, खट्टकूप शाखा, बीकानेरी शाखा, खजवाना शाखा, कोरंट शाखा तपरत्न शाखा आदि अनेक भेद हैं। गणधर श्री केशी स्वामी भगवान महावीर के समकालीन आचार्य थे।' .
(2) आचार्य भद्रबाहु' : 'भद्रबाहुचरित्र में उज्जैन के महाराजा चन्द्रगुप्त के गुरु श्रुतकेवली आचार्य भद्रबाहु का जीवन चरित्र लिखा है। आचार्य भद्रबाहु जैनाचार्यों में प्रमुख हैं। भद्रबाहुचरित्र में राजा चन्द्रगुप्ति के भावी अनिष्ट फल के सूचक सोलह स्वप्न देखने तथा आचार्य भद्रबाहु के उज्जैन आने एवं बाद में बारह वर्षीय दुर्भिक्ष पड़ने वाला है ऐसा जानकर दक्षिण देश में जाने के साथ ही चन्द्रगुप्ति द्वारा जैनधर्म स्वीकार कर भद्रबाहु के साथ दक्षिण देश जाकर अपने गुरु भद्रबाहु की सेवा करने का उल्लेख किया गया है। दक्षिण का यह देश मैसूर का श्रवण-बेलगोला बतलाया जाता है।
"आराधना कथाकोश एवं पुण्याश्रव कथाकोश में भी यही कथा पाई। जाती है और श्रवण बेलगोला की स्थानीय अनुश्रुति भी यही बतलाती है।
श्रीमेरूतुंगाचार्य ने प्रबन्धचिन्तामणि में आचार्य भद्रबाहु को आचार्य वराहमिहिर का सगाभाई बतलाया है। वहां वह वराहमिहिर को पाटलिपुत्र का रहने वाला बतलाया है। वराहमिहर का समय ई. पू. 123 से 43 है। तब यही समय भद्रबाहु का भी होना चाहिये।
भद्रबाहु के समय के विषय में विद्वानों में एकमत नहीं है। दिगम्बर सम्प्रदाय का कथन है कि भद्रबाहु नाम के दो आचार्य हुए है- प्रथम चुन्दगुप्त मौर्य के समकालीन थे जिनका देहान्त महावीर स्वामी के निर्वाण के 162 वर्ष बाद हुआ अर्थात् ई. पू. 365 और दूसरे आचार्य का देहान्त उक्त निर्वाण के 515 वर्ष बाद ई. पूर्व 12 में हुआ। जेकोबी ने भद्रकल्पसूत्र की भूमिका में और शतीषचन्द्र विद्याभूषण ने History of Indian Logic में इस मत की पुष्टि की है। परन्तु इन
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