Book Title: Prachin evam Madhyakalin Malva me Jain Dharm Ek Adhyayan
Author(s): Tejsinh Gaud
Publisher: Rajendrasuri Jain Granthmala
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अवंतिषेण ने एक स्तूप बनवाया था। वत्सिका नदी जिसे बैस नदी कहते हैं, सांची के पास आज भी विद्यमान है और सम्भव है कि अवंतिषेण के द्वारा. बनवाया गया स्तूप नष्ट करके बौद्ध स्तूप बनवा दिया गया हो। 12
मौर्यकालीन मालवा में जैन धर्म सम्राट चन्द्रगुप्त के विषय में कहा जाता है कि वे अंतिम समय में जैनसाधु होकर दक्षिण चले गये थे। दक्षिण भारत की श्रमण बैलगोला की गुफा में जैनधर्म सम्बन्धी शिलालेख प्राप्त हुए हैं। इनमें 'चन्द्रगुप्ति' नामक राजा का उल्लेख आता है जिसका सम्बन्ध विद्वानों ने चन्द्रगुप्त मौर्य से स्थापित किया है। चन्द्रगुप्त ने जैनधर्म की दीक्षा ली, उसका उल्लेख भद्रबाहुचरित में इस प्रकार है:
अवंति देश में 'चन्द्रगुप्ति' नामक राजा राज करता था। उसकी राजधानी उज्जैन थी। एक बार राजा चन्द्रगुप्ति ने रात को सोते हुए भावी अनिष्ट फल के सूचक सोलह स्वप्न देखे । प्रातःकाल होते ही उसको भद्रबाहु स्वामी के आगमन का समाचार मिला। भद्रबाहु स्वामी उज्जैन नगरी के बाहर एक सुन्दर बाग में ठहरे हुए थे। वनपाल ने जाकर राजा को सूचना दी कि गण के अग्रणि आचार्य भद्रबाहु अपने 'मुनि सन्दोह के साथ पधारे हुए हैं। यह सुनकर राजा बहुत प्रसन्न हुआ। उसने उसी समय भद्रबाहु को बुला भेजा और अपने स्वप्नों का फल पूछा। स्वप्नों का फल ज्ञात होने पर राजा चन्द्रगुप्ति ने जैनधर्म की दीक्षा ले ली और अपने गुरु भद्रबाहु की सेवा में दत्तचित्त तत्पर हो गया !
कुछ समय बाद आचार्य भद्रबाहु सेठ जिनदास के घर आये। इस घर में एक अकेला बालक पालने में झूल रहा था। यद्यपि इसकी आयु कुल साठ दिन की थी तथापित भद्रबाहु को देखकर 'जाओ जाओ' ऐसा वचन बोलना शुरू किया। इसे सुनते ही भद्रबाहु समझ गये कि शीघ्र ही बारह वर्ष का घोर दुर्भिक्ष पड़ने वाला है। अतएव उन्होंने अपने 500 मुनियों को लेकर दक्षिण देश जाने का निश्चय किया। वहां जाकर उन्हें कुछ ही समय बाद यह मालूम हो गया कि उनकी आयु थोड़ी रह गई है। अतः वे अपने स्थान पर विशाखाचार्य को नियत कर स्वयं एकान्त स्थान पर रहकर अंतिम समय की प्रतीक्षा करने लगे । चन्द्रगुप्ति मुनि गुरु की सेवा में ही रहे । यद्यपि भद्रबाहु ने चन्द्रगुप्ति को अपने पास रहने से बहुत मना किया, परन्तु उसने एकं न मानी। एकान्त में रहते हुए गिरि गुहा में भद्रबाहु ने प्राण त्याग दिये। इसके बाद मुनि चन्द्रगुप्ति इसी गुरु गुहा में निवास करने लगे।
इसी कथा से मिलती जुलती कथा आराधना कथाकोश एवं पुण्याश्रव कथाकोश में भी पाई जाती है। इस कथा में और श्रमण बैलगोला शिलालेखों में
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