Book Title: Prachin evam Madhyakalin Malva me Jain Dharm Ek Adhyayan
Author(s): Tejsinh Gaud
Publisher: Rajendrasuri Jain Granthmala
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कर लिया, सिद्धसेन दिवाकर ने मंदिर में स्थापित शिविलिंग में से श्री पार्श्वनाथ की प्रतिमा प्रकट करके इस जैन तीर्थ का जीणोद्धार करवाया। श्री जिनप्रभसूरि' ने इस प्रकार इसका उल्लेख किया है
__"ततश्च गोहदमण्डले ज सांवद्राप्रभतिग्रामाणामेकोनविंशति, चित्रकूट मण्डले वसाड प्रभृति प्रामाणां चतुशीति, तथा घुटारसी-प्रभृति ग्रामाणां चतुर्विंशतिं मोहडवासक मण्डले ईसरोडाप्रभृतिग्रामाणां षपञ्चाशतंमदात ततः शासनपट्टिका श्रीमद्ज्जयिन्यां, संवत 1 चैत्र सुदि 1 गुरी, भाटवेशीय महाक्षपटलिकपरमार्हत श्वेताम्बरोपासक ब्राह्मण गौतमसुतकात्यायनेन राजाऽलेखयत।।।
अर्थात् उसके उपरांत राजा ने स्वयं के कल्याण के लिये कुडुंगेश्वर ऋषभदेव के शासन द्वार गोहद मंडल में सांबद्र आदि 91 ग्राम, चित्रकूट मंडल में बसाड आदि 84 ग्राम, घुटारसी आदि 24 ग्राम और मोहडवास मंडल में ईसरोडा आदि 56 ग्राम समर्पित किये। फिर राजा ने शासन पट्टिका उज्जैन में चैत्रशुक्ला प्रतिपदा संवत् 1 गुरुवार के दिन भाट देश निवासी महाक्षपटलिक परमश्रावक, श्वेताम्बर मतानुयायी ब्राह्मण गौतम पुत्र कात्यायन से लिखवायी।
अतः यह अपने आप प्रमाणित हो जाता है कि उज्जैन अन्य धर्मों के समान ही जैनधर्म का प्राचीनकाल से केन्द्र रहा है और जैन मतावलम्बियों का एक प्राचीन तीर्थस्थान है यद्यपि-महाकाल संबंधी कथा सर्वथा कपोलकल्पित है।
___(2) विदिशा : विदिशा इतिहास प्रसिद्ध नगर है। दसवें तीर्थंकर शीतलनाथ • का यहां जन्म स्थान कहा जाता है। इसके पास ही उदयगिरि में बीस गुफाओं का एक समूह है। इसमें क्रमांक एक व क्रमांक बीस की गुफाएं जैनधर्म से सम्बन्धित है। बीसवीं गुफा में जैनियों के तेईसवें तीर्थंकर पार्श्वनाथ की मूर्ति थी जो अब वहां नहीं है। उसमें सन 425-26 का एक अभिलेख है जो बहुत महत्त्वपूर्ण है। आचार्य महागिरि तथा सुहस्ति ने यहां विहार किया था। दशपुर में चण्डप्रद्योत ने . भायल स्वामीगढ़ बसाकर वहां एक जैन मंदिर बनवाया और उसमें जीवंतस्वामी की मूर्ति स्थापित कर दी थी। बाद में यही मूर्ति विदिशा में स्थापित हुई जिसका उल्लेख जैनग्रन्थों में मिलता है। विदिशा के पास कुंजरावर्त और रथावर्त नाम के पर्वत थे, दोनों पासपास थे। जैन परम्परा के अनुसार कुंजरावर्त पर्वत पर आर्य वज्रस्वामी ने निर्वाण पाया था। इस पर्वत का उल्लेख रामायण में भी आता है। रथावर्त पर्वत पर आर्यवज्र स्वामी पांच सौ श्रमणों के साथ आये थे। इस पर्वत का उल्लेख महाभारत में आता है। इसके अतिरिक्त यहां बहुत से स्तूपों के अवशेष भी मिलते हैं। इसके पास ग्यारसपुर स्थान पर भी बहुत से मंदिरों के भग्नावशेष मिले हैं जिनमें जैन मंदिरों के भग्नावशेष भी है पास ही दुर्जनपुरा में
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