Book Title: Prachin evam Madhyakalin Malva me Jain Dharm Ek Adhyayan
Author(s): Tejsinh Gaud
Publisher: Rajendrasuri Jain Granthmala
View full book text
________________
मुख्याचार्य की उपाधि प्रदान की गई थी, तब निर्ग्रथंगच्छ वटगच्छ के नाम से भी पुकरा जाने लगा, जिसका दूसरा नाम वृहद् गच्छ भी है। 20 मालवा में इस.गच्छ का अस्तित्व कबसे है निश्चित रूप से नहीं कहा जा सकता।
(2) खरतरगच्छ : खरतरगच्छ प्रसिद्ध तथा प्रभावशाली गच्छ है। इस गच्छ की उत्पत्ति के विषय में ऐसा कहा जाता है कि दुर्लभराज की राजसभा में जब जिनेश्वरसूरि ने चैत्यवासियों को विवाद में परास्त कर दिया तब उन्हें खरतर की उपाधि ई.सन् 1017 में प्राप्त हुई और उसी से खरतरगच्छ प्रारम्भ हुआ। यद्यपि खरतरगच्छ का अस्तित्व मालवा में पाया जाता है किन्तु बाद का तत्संबंधी उल्लेख है। बारहवीं सदी के आसपास का कोई उल्लेख प्राप्त नहीं हुआ है। इस . कारण बाद में मालवा में इस गच्छ का प्रसार कब हुआ, कहना कठिन है। .
(3) तपागच्छ : जगचन्द्रसूरि न केवल विद्वान् थे वरन् महान साधु और तपस्वी भी थे। जगचन्द्रसूरि ने 'आयंबिल' तपस्या करना स्वीकार किया था और इसमें इनहोंने बारह वर्ष व्यतीत कर दिये थे। इसको देखते हए मेवाड़ के राजा जयसिंह ने इन्हें सन् 1228 में 'तपा' की उपाधि से विभूषित किया। तभी से निग्रन्थगच्छ का एक दूसरा नाम तपागच्छ हुआ। मालवा में इस गच्छ के अनुयायियो का बहल्य है किन्तु जैसा कि इसकी उत्पत्ति के समय में विदित होता है इस गच्छ का प्रसार मालवा में तेरहवीं-चौदहवीं सदी में कभी हुआ होगा।
(4) आंचलगच्छ : विजयचन्द्र उपाध्याय प्रथम व्यक्ति थे जिन्होंने विधिपक्ष नामक गच्छ प्रारम्भ किया था। एक बार एक व्यापारी कोटी पाटन गया। प्रतिक्रमण करते समय उसने अपने वस्त्र का कोना उपयोग में लिया, जबकि उसे मुख पट्टिका उपयोग करना था। कुमारपाल ने इसका कारण पूछा, गुरु ने विधिपक्ष के विषय में कुमारपाल को बताया और तब कुमारपाल भी अपने वस्त्र का कोना उपयोग में लेने लगा और तब से विधिपक्ष आचलगच्छ के नाम से पुकारा जाने लगा। इस गच्छ का प्रसार ई.सन् 1166 के आसपास से माना जाता है।
(5) अन्यगच्छ: कुछ और अन्य गच्छ हैं किन्तु ऐसा प्रतीत होता है कि ये मालवा में पर्याप्त रूप से विकसित नहीं हो सके। इनके नाम तथा उत्पत्ति आदि इस प्रकार है
(1) पूर्णिमियागच्छ और सार्थपूर्णिमियागच्छ : जैसा कि नाम से प्रतीत होता है, पूर्णिमा के दिन से प्रारम्भ होने के कारण पूर्णिमियागच्छ नाम पड़ा। सार्थपूर्णिमियागच्छ का प्रारम्भ ई.सन् 1179 के लगभग हुआ। ऐसा कहा जाता है कि एक बार राजा कुमारपाल ने हेमचंद्र से कहा कि पूर्णिमियागच्छ के मानने वालों को बुलाकर पूछा जाय कि वे जैन धर्म ग्रन्थों के आधार पर आचरण करते
1301
Jain Education International
For Personal & Private Use Only
www.jainelibrary.org