Book Title: Prachin evam Madhyakalin Malva me Jain Dharm Ek Adhyayan
Author(s): Tejsinh Gaud
Publisher: Rajendrasuri Jain Granthmala
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पेथइशा या पृथ्वीधर तथा उसके पुत्र पौत्र तथा प्रपौत्रों ने जैनधर्म की उन्नति में अपना अमूल्य योगदान दिया है। पेथड़शाह तथा उसके वंश के अन्य व्यक्ति जैसे झांझण, बाहड़, चाहड़, मंडन एवं धनदराज पर्याप्त प्रसिद्धि प्राप्त कर चुके थे। मंडन तो मालवे के सुलतान हौशंग गौरी का प्रधानमंत्री तथा बड़ा विद्वान था। इसने विविध विषयों पर दस पुस्तकों की रचना की। धनद मंडन का चचेरा भाई. था तथा इसने भर्तृहरि की शतक के अनुसार शतक त्रयी रचना की। इनके सम्बन्ध में यथा स्थान प्रकाश डाला जाएगा।
(3) पोरवाड़ : पोरवाड़ प्राग्वाट जाति का अपभ्रंश है। प्राग्वाट् जाति का मूल स्थान तो प्राग्वटपुर था जो गंगा के तट पर एक प्राचीन नगर था। वाल्मीकि रामायण में इस नगर का उल्लेख मिलता है। जब से प्राग्वाटपुर के लोग राजपूताने की ओर आये तब से वह प्राग्वाट कहलाने लगे। जैनाचार्य स्वयंप्रभसूरि ने उपदेश देकर प्राग्वाट वंश की स्थापना की। उसी प्राग्वाट वंश का अपभ्रंश 'पोरवाइ हुआ। इनके रीति-रिवाज, खान-पान ओसवालों के समान हैं। इनकी कुलदेवी अम्बिका है।
आचार्य स्वयंप्रभसूरि ने जो पद्मावती नगरी में प्राग्वट वंश की स्थापना की थी उनके साथ ‘पद्मावती पोरवाड़' का खिताब है और बाद में आचार्य हरिभद्रसूरि ने कितने ही लोगों को जैन बनाकर प्राग्वाट पोरवाड़ जाति में शामिल कर दिया। उन पोरवाड़ों की तीन शाखाएं हुईं। (1) शुद्ध पोरवाड़ (2) सोरठिया पोरवाड़ और (3) कपाले पोरवाड़। इनमें भी दसा बीसा भेद है।"
__ पोरवाड़ दिगम्बरों तथा श्वेताम्बरों दोनों में पाये जाते हैं किन्त श्वेताम्बरों में इनकी संख्या अधिक है। इनकी उत्पत्ति के विषय में कहा जाता है कि ये गुज्जर कबीले थे जो राजा कनिष्क के साथ भारत में आये थे और पूर्वी राजस्थान में बस गये थे। कनिष्क की आज्ञानुसार ये श्रीमाल नगर की रक्षा के लिये एक बड़ी संख्या में आये थे और श्रीमाल नगर के पूर्वी ओर रुक गये थे। चूंकि ये श्रीमाल नगर के पूर्वी और रुके थे, ये प्राग्वट या पोरवाड़ कहलाये। ऐसा लगता है कि इस जाति के लिये विक्रम की 13वीं सदी से 15वीं सदी तक प्राग्वट शब्द का सामन्य प्रचलन था।20 पोरवाड़ 24 गात्रों में विभाजित हैं। ये स्थानों के नाम से भी जाने जाते हैं जैसे- जामनगरी; कपड़पंजी, बरुची, भावनगरी आदि आदि।
कभी कभी गलती से इन पोरवाड़ों को पोरवाल भी कह देते हैं।
ठाकुर लक्ष्मणसिंह गणपतसिंह चौधरी मालवा में पोरवाड़ों के इतिहास के सम्बन्ध में लिखते हैं कि मालवे में शाजापुर के जैन मंदिर में एक श्वेत पाषाण की मूर्ति पोरवाड़ पंचों की बनाई हुई वि.सं.1542 की मिली है और देवास के श्री 1461
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