Book Title: Prachin evam Madhyakalin Malva me Jain Dharm Ek Adhyayan
Author(s): Tejsinh Gaud
Publisher: Rajendrasuri Jain Granthmala
View full book text
________________
उत्तराधिकारियों में सुभटवर्मा, अर्जुनवर्मा, देवपाल और जैतुंगदेव ने पं. आशाधर आदि जैन विद्वानों का आदर किया था।
रत्नमुण्डनगणिकृत झांझण प्रबंध और पृथ्वीधरचरित्र तथा उपदेश तरंगिणी से ज्ञात होता है कि परमार राजा जयसिंह देव तृतीय (ई. सन् 1261-80) के मंत्री पेथड़कुमार ने मांडव में 300 जैन मंदिरों का जीर्णोद्धार किया और उन पर सोने
कलश चढ़वाए थे। इसी प्रकार अठारह लाख रुपये की लागत का 'शत्रुंजयावतार' नाम का विशाल मंदिर बनवाया था। पेथड़ के पुत्र झांझण ने मांडव में बहुत-सी धर्मशालाएं स्थान-स्थान पर बनवाई और एक बहुत विशाल ग्रंथालय स्थापित किया था। 700 मंदिरों की संख्या केवल जैन श्वेताम्बरियों की थी। चांदाशा नाम के धनी व्यापारी ने 72 जिन देवालय और 36 दीपस्तंम्भ मांडव नगर में बनवाए थे । धनकुबेर श्रीमाल भूपाल लघुशान्तिचन्द्र जावड़शा ने ऋषभदेव, शान्तिनाथ, नेमिनाथ, पार्श्वनाथ और महावीर के सोंधशिखरी पांच जिन देवालय बनवाएं और उनमें एक ग्यारह सेर सोने की तथा दूसरी बाईस सेर चांदी की और शेष पाषण की जिन प्रतिमाएं साधु रत्नसूरि की आज्ञा से स्थापना कराई थी। इस उत्सव में 19 लाख रुपये व्यय किये। एक लाख रुपये तो केवल मुनि के मांडव नगर प्रवेश के समय व्यय किये थे। इस प्रकार और भी प्रमाण इस बात की पुष्टि करने वाले मिलते हैं कि ई. सन् 1390 यानि मुसलमानों के आने तक परमार राजाओं की सांस्कृतिक केन्द्र के रूप में मांडव एक समृद्ध नगर था, जिसका विध्वंस बाद में मुसलमानी शासनकाल में हुआ और सदियों के बने हुए देवालयों तथा अन्य इमारतों की सामग्री का रूपान्तरित करने यावनी तक्षणकला की तर्ज पर मौजूदा आलीशान इमारतें मुसलमानी समय में निर्माण हुई जिससे हिन्दू राजत्व काल की एक भी इमारत जमीन के ऊपर अभग्न न रही।
35
समग्र रूप से यदि जैनधर्म के ऐतिहासिक महत्त्व का मूल्यांकन किया जाय तो स्पष्ट हो जायगा कि साहित्यिक साक्ष्य के आधार पर मालवा में जैनधर्म का अस्तित्व भगवान महावीर के समय से है। किन्तु ये साहित्यिक साक्ष्य पर्याप्त बाद के हैं जिन पर एकदम पूर्ण रूप से विश्वास नहीं किया जा सकता। पुरातात्विक दृष्टि से देखने से पता चलता है कि गुप्त काल से मालवा में जैनधर्म से संबंधित अवशेष मिलना प्रारंभ होते हैं और उन अवशेषों के आधार पर तत्कालीन जैन समाज की प्रतिष्ठा पर प्रकाश पड़ता है। राजपूत काल में जैनधर्म अपनी सर्वांगणी उन्नतावस्था को प्राप्त हो रहा था व न केवल मंदिरों का ही निर्माण हुआ वरन् साहित्य के क्षेत्र में भी अनेक विद्वान् हुए जिन्होंने अनेक ग्रन्थों की रचना की। इस प्रकार मालवा में जैनधर्म का क्रमिक विकास हुआ।
22
Jain Education International
For Personal & Private Use Only
www.jainelibrary.org