Book Title: Patitoddharaka Jain Dharm
Author(s): Kamtaprasad Jain
Publisher: Mulchand Kisandas Kapadia

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Page 10
________________ महापापपकर्ताऽपि माणी श्रीजैनधर्मतः । भवेत् त्रैलोक्यसम्पूज्यो धकि मो पर शुभम् ॥ इसी प्रकार यह भी कहा है कि-" अनार्यमाचरन् किंचिजायते नीचगोचरः ।" तात्पर्य यह है कि मनुष्यकी उच्चता नीचता शुद्ध आचार विचार और धर्मपालन या उसके विपरीत चलनेपर आधार रखती है । जन्मगत ठेका किसीको नहीं दिया गया है। इन्हीं सब बातोंका प्रतिपादन हमारे विद्वान लेखकने इस पुस्तकमें बड़ी ही उत्तमतासे किया है। इस पुस्तकके प्रारम्भिक ३६ पृष्ठोंसे पाठक जैनधर्मकी उदारताको भलीभांति समझ सकेंगे। और उसके बाद दी गई २० धर्मकथाओंसे ज्ञात कर सकेंगे कि जैनधर्म कैसे कैसे पतितोंका उद्धार कर सकता है और उसकी पावन पाचकशक्ति कितनी तीव्र है। इस पुस्तकको अन्तिम दो कथाओंको छोड़कर बाकी सभी कथायें जैन शास्रोंकी है। विद्वान लेखकने उन्हें कई पुस्तकोंके आधारसे अपनी रोचक भाषामें लिखा है । आशा है कि जैनसमाज इनका मनन करेगी और जैनधर्मकी पतितोद्धारकताको समझकर अपने पतित भाइयोंका उद्धार करनेकी उदारता बतायगी। ___ साथ ही हमें एक निवेदन और कर देना है कि इन कथाओंका हेतु जैन धर्मकी पतितोद्धारकता प्रगट करना है । इससे कोई ऐसा अनर्थ न करें कि जब भयंकरसे भयंकर पाप धुल सक्के हैं तब पापोंसे क्यों डरा जाय ? पानी और साबुनसे वस्त्र शुद्ध होसके हैं, इसलिये मैले वनोंको साफ करना चाहिये, किन्तु

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