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ज्ञान आदि गुण चाहिए । साधुपद के लिये इन गुणों को प्राप्त करना कोई खास जरूरी नहीं है साधुपद के लिये जो सत्ताईस गुण जरूरी हैं वे तो आचार्य और उपाध्यान में भी होते हैं, पर इन के अलावा उपाध्याय में पच्चीस और आचार्य में छत्तीस गुण होने चाहिए अर्थात् साधुपद की अपेक्षा उपाध्याय पद का महत्त्व अधिक, और उपाध्यायपद की अपेक्षा आचार्यपद का महत्त्व अधिक है। (२५) प्र० - सिद्ध तो परोक्ष हैं, पर अरिहन्त शरीरधारी होने के कारण प्रत्यक्ष हैं। इस लिये यह जानना जरूरी है कि जैसे हम लोगों की अपेक्षा अरिहन्त की ज्ञान आदि आन्तरिक शक्तियाँ अलौकिक होती हैं वैसे ही उन की वाह्य अवस्था में भी क्या हम से कुछ विशेषता हो जाती है ?
उ०- अवश्य । भीतरी शक्तियाँ परिपूर्ण प्रकट हो जाने के कारण आरहन्त का प्रभाव इतना अलौकिक बन जाता है कि साधारण लोग इस पर विश्वास तक नहीं कर सकते । अरिहन्तका सारा व्यवहार लोकोत्तर होता है । मनुष्य, पशु पक्षी आदि भिन्न २ जाति के जीव अरिहन्त 'लोकोत्तरचमत्कार, - करी तव भवस्थितिः ।
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यतो नाहारनीहारौ, गौचरौ चर्मचक्षुषाम् ॥” [वीतरागस्तोत्र, द्वितीय प्रकाश, श्लोक ८ ।
1] अर्थात्- [हे भगवन् !] तुम्हारी रहन-सहन आश्चर्यकारक श्रत एव लोकोत्तर हे, क्योंकि न तो आपका आहार देखने में आता और न नीहार ( पाखाना) ।
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