Book Title: Mulachar Purvardha
Author(s): Vattkeracharya, Gyanmati Mataji
Publisher: Bharatiya Gyanpith

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Page 13
________________ आद्य उपोद्घात सकल वाङमय द्वादशांग रूप है। उसमें सबसे प्रथम अंग का नाम आचारांग है, और यह संपूर्ण श्रुतस्कंध का आधारभूत 'श्रुतस्कंधाधारभूतं'' है। समवसरण में भी बारह कोठों में से सर्वप्रथम कोठे में मुनिगण रहते हैं। उनकी प्रमुखता करके भगवान् की दिव्यध्वनि में से प्रथम ही गणधरदेव आचारांग नाम से रचते हैं। इस अंग की १८ हज़ार प्रमाण पद संख्या मानी गयी है। ग्रन्थकर्ता ने चौदह सौ गाथाओं में इस ग्रन्थ की रचना की है। टीकाकार श्री वसुनन्दी सिद्धान्तचक्रवर्ती ने इस ग्रन्थ की बारह हज़ार श्लोक प्रमाण बृहत् टीका लिखी है। यह ग्रन्थ १२ अधिकारों में विभाजित है १. मूलगुणाधिकार-इस अधिकार में मूलगुणों के नाम बतलाकर पुन: प्रत्येक का लक्षण अलग-अलग गाथाओं में बतलाया गया है। अनन्तर इन मलगुणों को पालन करने से क्या फल प्राप्त होता है यह निर्दिष्ट है । टीकाकार ने मंगलाचरण की टीका में ही कहा है "मूलगुणैः शुद्धिस्वरूपं साध्यं, साधनमिदं मूलगुणशास्त्र"-इन मूलगुणों से आत्मा का शुद्धस्वरूप साध्य है, और यह मूलाचार शास्त्र उसके लिए साधन है। २. बृहत् प्रत्याख्यान-संस्तरस्तवाधिकार-इस अधिकार में पापयोग के प्रत्याख्यानत्याग करने का कथन है। संक्षेप में संन्यासमरण के भेद और उनके लक्षण को भी लिया है। ३. संक्षेप प्रत्याख्यानाधिकार-इसमें अति संक्षेप में पापों के त्याग का उपदेश है। दश प्रकार मुण्डन का भी अच्छा वर्णन है। ४. समाचाराधिकार प्रातःकाल से रात्रिपर्यंत-अहोरात्र साधुओं की चर्या का नाम ही समाचार चर्या है । इसके औधिक और पद-विभागी ऐसे दो भेद किये गये हैं। उनमें भी औधिक के १० भेद और पद-विभागी के अनेक भेद किये हैं। इस अधिकार में आजकल के मुनियों को एकलविहारी होने का निषेध किया है। इसमें आयिकाओं की चर्या का कथन तथा उनके आचार्य कैसे हों, इस पर भी अच्छा प्रकाश डाला गया है। ५. पंचाचाराधिकार-इसमें दर्शनाचार, ज्ञानाचार, चरित्राचार, तप आचार और वीर्याचार इन पाँचों आचारों का बहुत ही सुन्दर विवेचन है। ६. पिंडशुद्धि-अधिकार--इस अधिकार में उद्गम, उत्पादन, एषणा, संयोजना, १. प्रारम्भ टीका की पंक्ति । २. पियधम्मो दढधम्मो संविग्गोऽवज्जभीर परिसुद्धो । संगहणग्गहकूसलो सददं सारक्खणाजुत्तो॥३॥ गंभीरो दुद्धरिसो मिदवादी अप्पकोदुहल्लोय । चिरपव्वइदो गिहिदत्थो अज्जाणं गणधरोहोदि ॥४॥ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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