Book Title: Mulachar Purvardha Author(s): Vattkeracharya, Gyanmati Mataji Publisher: Bharatiya GyanpithPage 12
________________ स्वामी का जीवन परिचय भो निबद्ध किया है। मूलाचार के कर्ता के विषय में आचारवृत्ति के कर्ता वसुनन्दी आचार्य ने ग्रन्थकर्ता के रूप से वट्टकेराचार्य, वट्टकेर्याचार्य और वट्टे रकाचार्य का नामोल्लेख किया है । पहला रूप टीका के प्रारम्भिक प्रस्तावना-वाक्य में, दूसरा हवें, १० वें और ११ वें अधिकार के सन्धि-वाक्यों में तथा तीसरा दवें अधिकार के सन्धि-वाक्य में किया है । परन्तु इस नाम के किसी आचार्य का उल्लेख अन्यत्र गुर्वावलियों, पट्टावलियों, शिलालेखों या ग्रन्थ प्रशस्तियों आदि में कहीं भी देखने में नहीं आता । इसलिए इतिहास के विद्वानों के सामने आज भी यह अन्वेषण का विषय है । माणिकचन्द्र ग्रन्थमाला से प्रकाशित मूलाचार की प्रति के अन्त में यह पुष्पिका वाक्य है - ' इति मूलाचारविवृतौ द्वादशोऽध्यायः । कुन्दकुन्दाचार्यप्रणीतमूलाचाराख्यविवृतिः । कृतिरियं वसुनन्दिनः श्रमणस्य ।' इस पुष्पिका के आधार पर मूलाचार को कुन्दकुन्द रचित माना जाने लगा है परन्तु इसका अभी तक प्रबल युक्तियों द्वारा निर्णय न होने से यह संस्करण वट्टकेराचार्य के नाम से ही प्रकाशित किया जा रहा है। आचारवृत्ति के कर्ता वसुनन्दी हैं । इस नाम के अनेक आचार्य हुए हैं उनमें से आचारवृत्ति के कर्ता, स्व. डॉ. ए. एन. उपाध्ये के लेखानुसार (जैनजगत् वर्ष ८ अंक ७), विक्रम १२ वीं शती में हुए। ये अनगार धर्मामृत के रचयिता आशाधर जी से पहले और सुभाषितरत्नसंदोह आदि ग्रन्थों के कर्ता अतिगमित से पीछे हुए हैं । आशाधरजी ने अनगार धर्मामृत की स्वोपज्ञ टीका में आचारवृत्ति का कई जगह उल्लेख किया है जबकि आचारवृत्ति में अमितगति के 'सुभाषित रत्नसंदोह' तथा 'संस्कृत पंचसंग्रह' के अनेक उदाहरण दिये हैं । मूलाचार की अनेक गाथाएँ दिगम्बर तथा श्वेताम्बर ग्रन्थों में पाई जाती हैं इससे यह स्पष्ट होता है कि कुछ गाथाएँ परम्परा से चली आ रही हैं और उत्तरवर्ती ग्रन्थकारों ने उन्हें अपने त्थों में यथास्थान संगृहीत कर अपने ग्रन्थ का गौरव बढ़ाया है । हमें प्रसन्नता होती है कि कुछ आर्यिकाओं ने आगम ग्रन्थों का यथार्थ ज्ञान प्राप्त कर उनकी. टीकाएँ लिखना प्रारम्भ किया है। उन आर्यिकाओं के नाम हैं श्री १०५ आर्यिका रत्न ज्ञानमती माता जी (अष्टसहस्री, नियमसार, कातन्त्ररूपमाला आदि ग्रन्थों को टीकाकार), श्री १०५ आर्यिका विशुद्धमति जी (त्रिलोकसार, त्रिलोकसारदीपक तथा त्रिलोयपणसी आदि की टीकाकार), श्री १०५ आर्यिका जिनमति माता जी (प्रमेयकमलमार्तण्ड की टीकाकार), श्री १०५ आर्यिका आदिमति माता जी ( गोम्मटसार कर्मकाण्ड की टीकाकार) तथा श्री १०५ सुपार्श्वमति माता जी (सागार धर्मामृत, आचारसार आदि की टीकाकार) आदि । ये माताएँ ज्ञान-ध्यान में तत्पर रहती हुई जैनवाङ् मय की उपासना करती रहें यह आकांक्षा है । मूलाचार के इस सुन्दर संस्करण को प्रकाशित करने के लिए भारतीय ज्ञानपीठ के अध्यक्ष तथा संचालक धन्यवाद के पात्र हैं। बहुत समय से अप्राप्य इस ग्रन्थ के पुनः प्रकाशन की आवश्यकता थी जिसकी पूर्ति भारतीय ज्ञानपीठ ने की है। Jain Education International For Private & Personal Use Only - कैलाश चन्द्र शास्त्री जगन्मोहनेला स्त्री पन्नालाल साहित्याचार्य www.jainelibrary.orgPage Navigation
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