Book Title: Mulachar Purvardha
Author(s): Vattkeracharya, Gyanmati Mataji
Publisher: Bharatiya Gyanpith

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Page 10
________________ सम्पादकीय (प्रथम संस्करण) 'प्रवचनसार' के चारित्राधिकार के प्रारम्भ में कुन्दकुन्द स्वामी ने लिखा है कि यदि दुःख से छुटकारा चाहता है तो निर्ग्रन्थ अवस्था को प्राप्त कर।' अनादि कालीन भवभ्रमण से संत्रस्त भव्यप्राणी के लिए कुन्दकुन्दाचार्य की उपर्युक्त देशना अत्यन्त महत्त्वपूर्ण है। उन्होंने 'चारित्तं खलु धम्मो' लिखकर चारित्र को ही धर्म बताया है। और धर्म का अर्थ बतलाया है साम्य परिणाम, और साम्य परिणाम की व्याख्या की है-मोह तथा क्षोभ से रहित आत्मा का साम्य भाव। वास्तव में राग-द्वेष तथा मोह से रहित आत्मा की जो परिणति है वही धर्म कहलाता है और ऐसे धर्म की प्राप्ति होना ही चारित्र है। पञ्च महाव्रत आदि धारणरूप व्यवहार-चारित्र इसी परमार्थ-चारित्र की प्राप्ति होने में साधक होने से चारित्र कहलाता है। 'समयसार' के मोक्षाधिकार के प्रारम्भ में उन्हीं कुन्दकुन्द स्वामी ने कहा है कि जिस प्रकार बन्धन में पड़ा व्यक्ति, बन्धन के कारण और उसकी तीव्र, मन्द, मध्यम अवस्थाओं को जानता हुआ भी जब तक उस बन्धन को काटने का पुरुषार्थ नहीं करता तब तक बन्धन से मुक्त नहीं हो सकता। इसी प्रकार कर्मबन्धन के कारण, उसकी स्थिति तथा अनुभाग के तीव्र, मन्द एवं मध्यमभाव को जानता हुआ भी तब तक कर्मबन्धन से मुक्त नहीं हो सकता जब तक कि उस बन्धन को काटने का पुरुषार्थ नहीं करता। यहाँ पुरुषार्थ से तात्पर्य सम्यक्चारित्र से है। इसके बिना तेतीस सागर प्रमाण दीर्घकाल तक तत्त्वचर्चा करनेवाला सर्वार्थ सिद्धि का अहमिन्द्र, सम्यग्दृष्टि और पदानुरूप सम्यग्ज्ञान के होने पर भी कर्मबन्धन से मुक्त नहीं हो सकता, जबकि वहाँ से आकर दैगम्बरी दीक्षा धारण करने के बाद अन्तर्मुहूर्त में भी बन्धन से मुक्त हो सकता है। यह सम्यक्चारित्र सम्यग्दर्शन और समयग्ज्ञान पूर्वक ही होता है, इनके बिना होनेवाला चारित्र मोक्षमार्ग का साधक नहीं हो सकता। तात्पर्य यह है कि सम्यक्चारित्र धर्म है, सम्यग्दर्शन उसका मूल है, तथा सम्यग्ज्ञान सम्यग्दर्शन का सहचर है।। कुन्दकुन्द स्वामी के प्रवचनसार, नियमसार, चारित्रपाहुड, बोधपाहुड तथा भाव पाहुड आदि में भव्य जीव को जो देशना दी है उससे स्पष्ट ध्वनित होता है कि वे दिगम्बर साधु में रञ्चमात्र भी शैथिल्य को स्वीकृत नहीं करते थे । नव स्थापित श्वेताम्बर संघ के साधुओं में जो विकृतियाँ आयी थीं उनसे दिगम्बर साधु को दूर रखने का उन्होंने बहुत प्रयत्न किया था। विकृत आचरण करनेवाले साधु को उन्होंने नटश्रमण तक कहा है। १. पडिवज्जदु सामण्णं जदि इच्छदि द्रक्खपरिमोक्खं ॥२०१॥ प्र. सा. २. चारित्तं खलु धम्मो धम्मो जो सो समो त्ति णिद्दिट्ठो। मोहक्खोह विहीणो परिणामो अप्पणो हु समो ॥७॥ प्र. सा. ३. समयसार, गाथा २८८-२६३ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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