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[ ४ ] भरतपुर नरेश के पूज्य डीग बाले पंडितजी, पं० हरेकृष्ण, वैद्य देवीप्रकाशजी अवस्थी, पं० श्यामसुन्दर सांख्यधर श्रादि के प्रति भी मैं अपनी कृतज्ञता ज्ञापित करता हूँ। श्री हिन्दी साहित्यसमिति, भरतपुर, राजकीय पुस्तकालय, भरतपुर, अलवर-म्यूजियम; अलवर-नरेश के व्यक्तिगत पस्तकालय के अधिकारियों आदि को अनेक धन्यवाद देना भी मेरा कर्तव्य है। प्राप्त सामग्री का बहुत कुछ अंश इन्ही स्थानों से प्राप्त हुप्रा । भरतपुर के महाराजा व्रजेन्द्रसवाई श्री व्रजेन्द्रसिंहजी तथा अलवराधीश श्री तेजसिंह जू देव के प्रति भी मैं विनम्र आभार अर्पित करता हूँ। इन विद्याप्रेमी नरेशों के सहयोग तथा सुझावों का अनेक स्थानों पर उपयोग हुआ है। मुझे कहा गया कि मेरे शोध-प्रबंध के परीक्षक मेरे अादरणीय गुरुवर डॉ० धीरेन्द्र जी वर्मा तथा प्रागरा हिंदी विद्यापीठ के डॉ० गौरीशंकर सत्येन्द्र थे। इन दोनों विद्वानों द्वारा निर्दिष्ट सुझावों का यथा-संभव समावेश करने का प्रयास कृतज्ञतापूर्वक किया गया है।
इस कृति का प्रकाशन राजस्थान सरकार के राजस्थान प्राच्यविद्या-प्रतिष्ठान, जोधपुर द्वारा हो रहा है। संभवतः इस प्रतिष्ठान द्वारा किसी भी शोध-प्रबंध के लिए दिया गया, यह प्रथम सम्मान है । प्रतिष्ठान के सम्मान्य संचालक, विविध भाषानों के अद्वितीय विद्वान और प्रसिद्ध खोजकर्ता मुनिवर पद्मश्री जिनविजयजी ने इस प्रबन्ध को अच्छी तरह देखने की कृपा की और राजस्थान पुरातन ग्रन्थमाला के अन्तर्गत प्रकाशित करने के लिए उपयुक्त समझा। उनके द्वारा मिला यह प्रोत्साहन मेरे लिए अत्यन्त मूल्यवान है । प्रतिष्ठान के उपसंचालक पंडित प्रवर गोपालनारायणजी बहुरा के अनेक मूल्यवान परामर्श तथा पुस्तक प्रकाशन में अभिरुचि के प्रति मैं अत्यन्त कृतज्ञ है। प्रवर शोध सहायक श्री पुरुषोत्तमलालजी मेनारिया ने अपने अथक परिश्रम द्वारा परिशिष्ट नं० १ तथा २ को उनका वर्तमान स्वरूप प्रदान किया, साथ ही प्रतिष्ठान के अन्य वरिष्ठ कर्मचारी भी इस कार्य में सहयोग प्रदान करते रहे - इन सभी के प्रति मैं आभारी हूँ। इस पुस्तक का मुद्रण-कार्य सुन्दर रूप में सम्पन्न कराने के लिए मैं साधना प्रेस के व्यवस्थापक श्री हरिप्रसादजी पारीक का भी कृतज्ञ हूँ।
-मोतीलाल गुप्त
हिन्दी विभाग. जोधपुर विश्वविद्यालय, जोधपुर, तारीख ८ दिसम्बर, १९६२ ई०
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