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। ३ । मत्स्य प्रदेश में उपलब्ध इन विविध कृतियों का अध्ययन अनेक प्रकार से उपयोगी है-न केवल कुछ विशिष्ट कवियों के कृतित्व से ही परिचय होता है वरन् उस समय की प्रचलित साहित्यिक प्रवृत्तियों और विद्याओं का भी परिज्ञान होता है। साथ ही राजनैतिक, सामाजिक और धार्मिक प्रसंगों पर भी महत्त्वपूर्ण जानकारी मिलती है। राजस्थान का हस्तलिखित साहित्य प्रचुर मात्रा में प्राप्त होता है और कुछ लोगों ने इस ओर कार्य भी किया है। इस प्रसंग में 'शिवसिंह-सरोज', "मिश्रबंधु-विनोद', 'राजस्थान का पिंगल साहित्य', आदि पुस्तकों के नाम लिए जा सकते हैं परन्तु मत्स्यप्रदेश से संबंधित सामग्री इन कृतियों में भी उपलब्ध नहीं होतो और लगभग यही दशा नागरी प्रचारिणी सभा की खोज-रिपोर्टों की है।
इस शोध-प्रबंध में कुछ ऐसे कवियों का नामोल्लेख भी हुया है जो मत्स्यप्रदेश के तो नहीं कहे जा सकते किंतु जिनका निकटतम संबंध इस प्रदेश के राजानों अथवा सामान्य जनता से रहा है, यथा-रसरासि, कलानिधि, देवीदास प्रादि । एक बात मैं और कह दूं। इस प्रबंध में मेरा उद्देश्य मत्स्य के संपूर्ण साहित्य का अनुशीलन नहीं रहा और न ऐसा संभव ही होता । मैंने तो इस बात की चेष्टा की है कि प्राप्त सामग्री में से ऐसा चुनाव किया जाय जिससे इस प्रदेश की प्रमुख काव्य-प्रवृत्तियों का परिचय मिल सके । इसी दृष्टि से कवियों की जीवनसंबंधी सामग्री का भी प्राय: प्रभाव मिलेगा। इस संबंध में मैंने अपना दृष्टिकोण विवरणास्मक और आलोचनात्मक रखा है किन्तु अब मैं समझने लगा हूं कि भाषा-विषयक अध्ययन भी बहुत उपयोगी होगा। अलवर के जाचीक जीवण कृत 'प्रतापरासो' को इस दृष्टि से संपादित किया जा चुका है और भरतपुर के सोमनाथ संबंधी काव्यों का भाषा-विषयक अध्ययन जारी है।
इस शोध प्रबंध का निर्देशन-कार्य प्राचार्यवर डॉ० सोमनाथजी गुप्त, अवकाश प्राप्त प्रिसिपल महाराजा कॉलेज, जयपुर तथा वर्तमान संचालक राजस्थान साहित्य अकादमी, उदयपुर के द्वारा हुा । मत्स्य प्रदेश के हस्तलिखित साहित्य में डॉक्टर साहब की रुचि बहुत समय से रही है और जब मैंने यह विषय प्रस्तावित किया तो आपने उसका प्रसन्नतापूर्वक अनुमोदन किया । अपने साथ कुछ हस्तलिखित ग्रंथों का पाठ कराना, अनेक पते-ठिकाने बताना और हस्तलिखित ग्रंथों को उपलब्ध करने की युक्तियां बताना डॉक्टर साहब जैसे साधन-सम्पन्न व्यक्ति का ही कार्य था। यह एक सुखद प्रसंग हैं कि इस प्रान्त के प्रमुख साहित्यकार का नाम भी 'सोमनाथ' ही है और अभी तक मैं इन सोमनाथजी में उलझा हमा हैं। अपने शोध-छात्रों को जो सुविधाएं, प्रोत्साहन और मार्ग-दर्शन डॉ० गुप्त देते हैं वह अनुकरणीय है। इस स्थान पर इस विषय की ओर ध्यान प्राकृष्ट करने वाले स्वर्गीय पंडित नन्दकुमार (सन्यास लेने पर बाबा गुरुमुखिदास ) का कृतज्ञतापूर्वक नाम स्मरण करना भी मावश्यक है। वे कहा करते थे 'मत्स्य क्या-भरतपुर-के हस्तलिखित साहित्य पर ही दर्जनों शोधप्रबंध प्रस्तुत किए जा सकते हैं।' यह कथन अतिशयोक्तिपूर्ण हो सकता है किन्तु यहाँ की सामग्री का यत्किचित अनुशीलन करने के पश्चात मेरा भी मत है कि शोध-सामग्री यहाँ प्रचुर मात्रा में विद्यमान है । स्वर्गीय पंडितजी के व्यक्तिगत नोटों से मैंने काफी लाभ उठाया। इस प्रसंग में मेरे गुरुवर पं. मदनलालजी शर्मा, प्रसिद्ध अन्वेषक मुनि कान्तिसागरजी, स्व०
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